
भावार्थ :
विशेषार्थ-जिस प्रकार अग्नि प्राणी को संतप्त करती है उसी प्रकार मोह भी राग-द्वेष उत्पन्न करके प्राणी को संतप्त करता है। इसीलिये मोह को अग्नि की उपमा दी जाती है। परंतु विचार करने पर वह मोहरूप अग्नि उस स्वाभाविक अग्नि की अपेक्षा भी अतिशय भयानक सिद्ध होती है। कारण यह है कि अग्नि तो जबतक इन्धन मिलता है तभी तक प्रदीप्त होकर प्राणी को संतप्त करती है- इन्धन के न रहने पर वह स्वयमेव शान्त हो जाती है, किन्तु वह मोहरूप अग्नि इन्धन (विषयभोग) के रहने पर भी संतप्त करती है और उसके न रहने पर भी संतप्त करती है। अभिप्राय यह है कि जैसे जैसे अभीष्ट विषय प्राप्त होते जाते हैं वैसे वैसे ही कामी जनों की वह विषयतृष्णा उत्तरोत्तर और भी बढती जाती है जिससे कि उन्हें कभी आनन्दजनक संतोष नहीं प्राप्त हो पाता । इसके विपरीत इच्छित विषयसामग्री के न मिलने पर भी वह दुखदायक तृष्णा शान्त नहीं होती। इस प्रकार यह विषय तृष्णा उक्त दोनों ही अवस्थाओं में प्राणी को संतप्त किया करती है ॥५६॥ |