
उग्रग्रीष्मकठोरधर्मकिरणस्फूर्जद्गभस्तिप्रभैः
संतप्तः सकलेन्द्रियैरयमहो संवृद्धतृष्णो जनः।
अप्राप्याभिमतं विवेकविमुखः पापप्रयासाकुल-
स्तोयोपान्तदुरन्तकर्दमगतक्षीणोक्षयत् क्लिश्यते॥५५॥
अन्वयार्थ : तीक्ष्ण ग्रीष्म काल के कठोर सूर्य की दैदीप्यमान किरणों की प्रभा के समान संताप को उत्पन्न करने वाली समस्त इन्द्रियों से संतप्त होकर यह प्राणी वृद्धिंगत विषयतृष्णा से युक्त होता हुआ विवेक को नष्ट कर देता है और फिर इसीलिये अभीष्ट विषयों को प्राप्त करने के लिये वह पापाचार में प्रवृत्त होकर व्याकुल होता है। परंतु जब उसे वे अभीष्ट विषय नहीं प्राप्त होते हैं तब वह इस प्रकार से क्लेश को प्राप्त होता है जिस प्रकार कि प्यास से पीडित होकर पानी के निकट अगाध कीचड में फंसा हुआ निर्बल बैल क्लेश को प्राप्त होता है ॥५५॥
Meaning : Anguished, as if by the scorching and blinding rays of the
unrelenting summer sun, by the senses, and athirst for
sense-pleasures, the man loses his sense of
discrimination. As he gets anguished seeking the desired
pleasures, he engages himself in sinful activities. His
anguish on not getting hold of the desired pleasures is
akin to the anguish of the powerless ox who, thirsty for
water, gets entrapped in the deep mire at the edge of a
piece of water.
भावार्थ
भावार्थ :
विशेषार्थ- जिस प्रकार कोई दुर्बल बैल ग्रीष्म कालीन सूर्य के संताप से पीडित होकर तृष्णा (प्यास) से युक्त होता हुआ किसी जलाशय के पास जाता है और वहां पानी के समीप में स्थित भारी कीचड में फंसकर दुःसह दुख को सहता है उसी प्रकार यह अज्ञानी प्राणी भी ग्रीष्मकालीन सूर्य के समान संतापजनक इन्द्रियों से पीडित होकर तृष्णा (विषयवांछा) से युक्त होता हुआ उन विषयों को प्राप्त करने के लिये कठोर परिश्रम करता है और इसके लिये वह धर्म-अधर्म का भी विचार नहीं करता। परंतु वैसा पुण्य शेष न रहने से जब वे विषयभोग उसे नहीं प्राप्त होते हैं तब उसकी गति भी उक्त बैल के ही समान होती है- वह इच्छित भोगों को न पाकर उस बढी हुई तृष्णा से निरंतर संक्लिष्ट रहता है ॥५५॥
|