+ मोह-निद्रा के वश हुए प्राणी की दशा -
तादात्म्यं तनुभिः सदानुभवनं पाकस्य दुःकर्मणो
व्यापारः समयं प्रति प्रकृतिभिर्गाढं स्वयं बन्धनम् ।
निद्रा विश्रमणं मृतेः प्रतिभयं शश्वग्मृतिश्च ध्रुवं
जन्मिन् जन्मनि ते तथापि रमसे तत्रैव चित्रं महत् ॥५८॥
अन्वयार्थ : हे जन्म लेने वाले प्राणी! इस जन्म-मरणरूप संसार में तेरा शरीर के साथ तादात्म्य है अर्थात् तू उत्तरोत्तर धारण किये जाने वाले शरीरों के भीतर स्थित होकर सदा उनके अधीन रहता है, तू निरन्तर पाप कर्म के फल स्वरूप दुख का अनुभव करता है, प्रत्येक समय में जो तेरा ज्ञानावरणादि कर्मप्रकृतियों से स्वयं बन्धन (सम्बन्ध) होता है वही तेरा व्यापार है, निद्रा जो है वही तेरा विश्राम है; तथा मरण से तुझे सदा भय रहता है, परन्तु वह निश्चय से आता अवश्य है । फिर आश्चर्य यही है कि ऐसी दुखमय अवस्था के होने पर भी तू उसी संसार के भीतर रमण करता है ॥५८॥
Meaning : O living being! In this world, characterized by births and
deaths, you are identified by the body that you adopt,
meaning thereby that you are always subservient to the
body that you adopt, one after the other. Under the dark
spell of sinful karmas, you experience misery at all times.
Your occupation is bondage of karmas, like the
knowledge-obscuring (jñānāvaraõīya), every instant and
of your own accord; your only rest is when you go to
sleep; you are always afraid of death but, surely, it is
inevitable. The wonder is that you still get engrossed in
this appalling world.

  भावार्थ 

भावार्थ :

विशेषार्थ- यह संसारी प्राणी बाह्य पर पदार्थों में राग-द्वेष करता हुआ मरण को प्राप्त होकर निरन्तर नवीन नवीन शरीर को धारण करता रहता है। इस प्रकार से वह निरन्तर जन्म-मरण के दुख को सहता है । इसके अतिरिक्त पूर्वोपार्जित कर्म के अनुसार और भी अनेक कष्टों का वह अनुभव किया करता है। उसका कार्य निरन्तर अपने राग-द्वेषादि परिणामों के अनुसार कर्मप्रकृतियों के बांधने का रहता है। जब उसे कुछ निद्रा आती है तभी विश्राम मिलता है । वह मृत्यु से यद्यपि सदा भयभीत रहता है, परन्तु उससे उसे छुटकारा नहीं मिलता। इस विषय में स्वामी समन्तभद्राचार्य ने यह बिलकुल ठीक कहा है-

बिभेति मृत्योर्न ततोऽस्ति मोक्षो नित्यं शिवं वाञ्छति नास्य लाभः । तथापि बालो भय-कामवश्यो वृथा स्वयं तप्यत इत्यवादीः ॥

अर्थात हे सुपार्श्व जिन ! यह प्राणी मृत्यु से निरन्तर डरता है, पर उससे उसे छुटकारा नहीं मिलता। वह सदा कल्याण की इच्छा करता है, परन्तु उसका उसे लाभ नहीं होता। फिर भी वह अज्ञानी प्राणी मृत्यु के भय और काम (सुख की इच्छा) के वशीभूत होकर स्वयं ही व्यर्थ में संतप्त हो रहा है । बृ. स्व. 34. इस प्रकार से वह प्राणी शरीर को धारण करके उसके सम्बन्ध से संसार में उपर्युक्त दुःखों को सहता है, तो भी वह उसी संसार में रमण करता है, यह महान् आश्चर्य की बात है॥५८॥