
दीप्तोभयाग्रवातारिदारूदरगकीटवत् ।
जन्ममृत्युसमाश्लिष्टे शरीरे बत सीदसि॥६३॥
अन्वयार्थ : हे भव्यजीव ! जिसके दोनों अग्रभाग अग्नि से जल रहे हैं ऐसी एरण्ड को लकडी के भीतर स्थित कीडे के समान और मृत्यु से व्याप्त शरीर में स्थित होकर तू दुख पा रहा है, यह खेद की बात है ॥६३॥
Meaning : O worthy soul! It is unfortunate that you, wrapped in the
body of life and death, are being tormented like the insect
trapped in the hollow log of castor-wood burning at both
ends.
भावार्थ
भावार्थ :
विशेषार्थ- जिस प्रकार दोनों ओर से जलती हुई पोली लकडी के भीतर स्थित कीडे का मरण अवश्य होनेवाला है उसी प्रकार जन्म और मरण से संयुक्त इस शरीर में स्थित रहने पर प्राणी का भी अहित अवश्य होनेवाला है । इसीलिये कल्याण के अभिलाषी भव्यजीव शरीर से निर्ममत्व होकर रत्नत्रय की प्राप्तिपूर्वक उसे छोडने का ही प्रयत्न करते हैं ॥६३॥
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