+ लक्ष्मी की अस्थिरता -
आदावेव महावलैरविचलं पट्टेन बद्धा स्वयं
रक्षाध्यक्षभुजासिपञ्जरवृता सामन्तसंरक्षिता।
लक्ष्मीर्दीपशिखोपमा क्षितिमतां हा पश्यतां नश्यति
प्रायः पातितचामरानिलहतेवान्यत्र काशा नृणाम् ॥६२॥
अन्वयार्थ : जो राजाओं की लक्ष्मी सर्वप्रथम महाबलवान् मंत्री और सेनापति आदि के द्वारा स्वयं पट्टबन्ध के रूप में निश्चलता से बांधी जाती है,जो रक्षाधिकारी (पहारेदार) पुरुषों के हाथों में स्थित खड्गसमूह से वेष्टित की जाती है,तथा जो सैनिक पुरुषों के द्वारा रक्षित रहती है,वह दीपक की लौ के समान अस्थिर राजलक्ष्मी भी ढुराये जाने वाले चामरों के पवन से ताडित हुई के समान जब देखते ही देखते नष्ट हो जाती है तब भला अन्य साधारण मनुष्यों की लक्ष्मी की स्थिरता के विषय में क्या आशा की जा सकती है? अर्थात् नहीं की जा सकती है॥६२॥
Meaning : The grandeur (LakÈmī) of the royal kingdom is first secured by tying it inextricably to mighty vassals(ministers and generals) wearing head-gears to display their allegiance. The guards, with swords in their hands, are in place to protect it. Then there is the army. Still, it perishes in a jiff, as the flame of the earthen-lamp by the wind of the fly-whisk. What hope is there for the steadiness of the fortune of the ordinary man?

  भावार्थ 

भावार्थ :

विशेषार्थ- अभिप्राय यह है कि जिस राजलक्ष्मी की रक्षा करने में अतिशय बलवान् सुभट एवं अन्य बुद्धिमान् मंत्री आदि भी सदा उद्यत रहते हैं वह भी जब पवन से प्रेरित दीपक की शिखा के समान क्षणभर में नष्ट हो जाती है तब साधारण मनुष्यों की अल्प संपत्ति, जिसका कि कोई रक्षण करनेवाला नहीं है, कैसे स्थिर रह सकती है? अर्थात् नहीं रह सकती है । अतएव अविनश्वर सुख की प्राप्ति के लिये विनश्वर धन-संपत्ति की अभिलाषा को छोडकर सन्तोष का ही आश्रय लेना हितकर है॥६२॥