
क्षितिजलधिभिः संख्यातीतैर्बहिः पवनस्त्रिभिः
परिवृतमतः खेनाधस्तात्खलासुरनारकान् ।
उपरि दिविजान मध्ये कृत्वा नरान् विधिमन्त्रिणा
पतिरपि नृणां त्राता नैको ह्यलंघ्यतमोऽन्तकः ॥७५॥
अन्वयार्थ : विधि रूप मंत्री ने इस लोक में नीचे दुष्ट असुरकुमार देवों और नारकियों को तथा ऊपर वैमानिक देवों को करके मध्य में मनुष्यों को स्थापित किया और उनके निवास भूत उस मनुष्यलोक को असंख्यात पृथिवीस्वरूप द्वीपों और समुद्रों से वेष्टित किया। उनके भी बाहिर तीन वातवलयों से तथा उनके भी आगे उसे आकाश से वेष्टित किया। इतने पर भी न तो वह विधिरूप मंत्री ही उन मनुष्यों की रक्षा कर पाता है और न चक्रवर्ती आदि भी। कारण यह कि लोक में अतिशय दुर्गम एक वह यम ही है ॥७५॥
Meaning : The creator-minister has put the human-region in the middle, the evil-minded ‘asura’ and the infernal beings below it, and the celestial beings above it. Transversely, he placed the human-region in the centre of innumerable continents and oceans. Further, he secured the entire universe-space with three sheaths, called ghanodadhivātavalaya, ghanavātavalaya, and tanuvātavalaya. All these are surrounded by the infinite non-universe-space . In spite of such security, neither the creator-minister nor the king-of-kings are able to secure the human beings. In this world, death is inviolable.
भावार्थ
भावार्थ :
विशेषार्थ- जिस प्रकार किसी राजा का सुयोग्य मंत्री राजा और उसके राज्य की रक्षा के लिये कोट एवं गहरी खाई से वेष्टित नगर का निर्माण कराकर उसके बीच में दुर्गम दुर्ग (किला) का निर्माण कराता है उसी प्रकार मंत्री के समान विधि ने मनुष्यों की सुरक्षा के लिये उनके निवासस्थान (मनुष्यलोक) को कोट और खाई के समान एक दो नहीं किन्तु असंख्यात द्वीप-समुद्रों से, इसके पश्चात् तीन वायुमण्डलों और तत्पश्चात् भी आकाश से वेष्टित किया; तथा उनके नीचे व्यन्तरों, भवनवासियों एवं नारकियों को और ऊपर वैमानिक देवों को स्थापित किया। इतना करने पर भी वह उन मनुष्यों को मरने से नहीं बचा सका- आयु के पूर्ण होने पर समयानुसार उन सबका मरण होता ही है। अभिप्राय यह है कि उपर्युक्त जो लोक की रचना है वह स्वाभाविक ही है । उसके उपर यहां यह उत्प्रेक्षा की गई है कि यह लोक की रचना क्या है, मानो ब्रह्मा ने मनुष्यों की रक्षा के लिये ही यह सब किया है, फिर भी खेद है कि वे मृत्यु से सुरक्षित नहीं रह सके । तात्पर्य यह कि मनुष्य ही नहीं, किन्तु जितने भी शरीरधारी प्राणी हैं वे सब समयानुसार मरण को अवश्य प्राप्त होने वाले हैं- उन्हें मृत्यु से बचाने वाला कोई भी नहीं है ॥७५॥
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