
भावार्थ :
विशेषार्थ- जिस प्रकार कोई चोर या डाकू बीहड जंगल में किसी मनुष्य को पाकर प्रथमतः उसे शराब आदि मादक वस्तु पिलाकर मूर्छित करता है और तत्पश्चात् उसके पास जो कुछ भी रुपया-पैसा आदि होता है उसे लूट कर मार डालता है। उसी प्रकार यह कर्म भी प्राणी को पहिले तो मोहरूप शराब पिलाकर मूर्छित करता है-- हेयोपादेय के ज्ञान से रहित करता है, और तत्पश्चात् उसके रत्नत्रय स्वरूप धन को लूटकर मार डालता है- दुर्गति में प्राप्त कराकर दुखी करता है । इस प्रकार जैसे उस बीहड जंगल में चोर के हाथों में पडे हुए, उस मनुष्य की कोई रक्षा करनेवाला नहीं है उसी प्रकार इस भयानक संसार में कर्मोदय से मोह को प्राप्त हुए प्राणी की भी रक्षा करनेवाला कोई नहीं है। हां, यदि वह स्वयं ही मोह से रहित होकर हिताहित के विवेक को प्राप्त कर लेता है तो अवश्य ही वह संसार के सन्ताप से बच सकता है। प्रकारान्तर से यहां यह भी सूचित किया गया है कि जो ब्रह्मा स्वयं ही विश्व को उत्पन्न करता है वही यदि उसका संहारक हो जाय तो फिर दूसरा कौन उसकी रक्षा कर सकता है ? कोई नहीं ॥७७॥ |