
भावार्थ :
विशेषार्थ- पूर्व श्लोक में यह बतलाया गया है कि प्राणी का मरण कब, कहां और किस प्रकार से होगा; इस प्रकार जब कोई नहीं जान सकता है तब विवेकी जीवों को यों ही निश्चिन्त होकर नहीं बैठना चाहिये, किन्तु उससे आत्मरक्षा का कुछ प्रयत्न करना चाहिये । इस पर शंका हो सकती थी कि जब उसके काल और स्थान आदि का पता ही नहीं है, तब भला उसका प्रतीकार करके आत्मरक्षा की ही कैसे जा सकती है ? इसके उत्तरस्वरूप यहां यह बतलाया है कि यदि उस काल (मरण) के स्थान आदि का पता नहीं है तो न रहे, किन्तु हे प्राणी ! ऐसे किसी सुरक्षित स्थान को प्राप्त कर ले जहां कि वह पहुंच ही नहीं सकता हो । ऐसा करने से उसका प्रतीकार करने के बिना ही तेरी रक्षा अपने आप हो जावेगी। ऐसे सुरक्षित स्थान का विचार करने पर वह केवल मोक्षपद ही ऐसा दिखता है जहां कि मृत्यु का वश नहीं चलता । अतएव बाह्य वस्तुओं में इष्टानिष्ट की कल्पना को छोडकर मोक्षमार्ग में ही प्रवृत्त होना चाहिये, इसी में जीव का आत्मकल्याण है ॥७९॥ |