
इष्टार्थोद्यदनाशितं भवसुखक्षाराम्भसि प्रस्फुरन् नानामानसदुःखवाडवशिखासंदीपिताभ्यन्तरे ।
मृत्यूत्पत्तिजरातरङ्गचपले संसारघोरार्णवे
मोहग्राहविदारितास्यविवराद्दूरे चरा दुर्लभाः ॥८७॥
अन्वयार्थ : जो संसाररूप भयानक समुद्र मनोहर पदार्थों के निमित्त से उत्पन्न होनेवाले असन्तोषजनक सुखरूप खारे जल से परिपूर्ण है, जिसका भीतरी भाग अनेक प्रकार के मानसिक दुखों रूप बडवानल की ज्वालाओं से जल रहा है; तथा जो मरण, जन्म एवं वृद्धत्वरूप लहरों से चंचल है; उस भयानक संसार-समुद्र में जो विवेकी प्राणी मोहरूप हिंस्र जलजन्तुओं के फाडे हुए मुखरूप बिल से दूर रहते हैं वे दुर्लभ हैं ॥८७॥
Meaning : The dreadful ocean of worldly existence is full of brackish water, incapable of quenching thirst, in form of pleasures that charming objects provide. As the ocean burns from inside due to the flames of the oceanic-fire, the worldly existence burns due to the fire of various kinds of mental agony. It is unsteady due to the waves of death, birth and old-age. It is full of cruel water-animals, like the crocodile of delusion, with gaping mouths; it is rare to find men who can keep themselves away from these gaping
mouths.
भावार्थ
भावार्थ :
विशेषार्थ- यह संसार भयानक समुद्र के समान है- समुद्र में जहां तृष्णा (प्यास) को न शान्त कर सकने वाला खारा जल रहता है वहां संसार में तृष्णा (विषयाभिलाषा) को न शान्त कर सकनेवाला इष्ट विषयभोगजनित सुख रहता है, समुद्र में यदि बडवानल की ज्वालाओं से उसका जल जलता रहता है तो संसार में भी प्राणी अनेक प्रकार के मानसिक दुःखों से जलते (संतप्त) रहते हैं; समुद्र में जहां उसको क्षुब्ध करने वाली बडी बडी लहरों की परम्परा चलती है यहां संसार में भी प्राणी को पीडित करने वाली लहरों के समान जन्म, जरा और मरण की परम्परा चलती रहती है; तथा समुद्र में यदि मगर एवं घडियाल आदि हिंसक जन्तु रहते हैं तो संसार में भी घातक मोह रहता है । इस प्रकार संसार और समुद्र इन दोनों के समान होने पर जिस प्रकार गम्भीर एवं अपार समुद्र में गिरे हुए प्राणियों का उसमें स्थित मगर-मत्स्यादि के मुख से बचना अशक्य है- विरला ही कोई भाग्यवान् बचता है, उसी प्रकार संसार में स्थित प्राणियों का मोह से बचना अशक्य है-- विरले ही विवेकी जीव उसके प्रभाव से बचते हैं ॥८७॥
|