+ बाल्यादि तीनों अवस्थाओं में धर्म की दुर्लभता -
बाल्ये वेत्सि न किंचिदप्यपरिपूर्णाङगो हितं वाहितं
कामान्धः खलु कामिनीद्रुमघने भ्राम्यन् वने यौवने ।
मध्ये वुद्धतृषार्जितुं वसु पशुः क्लिश्नासि कृष्यादिभि
र्वार्द्धिक्येऽर्धमृतः क्व जन्म फलि ते धर्मो भवेन्निर्मलः ॥८९॥
अन्वयार्थ : प्राणी बाल्यावस्था में शरीर के पुष्ट न होने से कुछ भी हित-अहित को नहीं जानता है । यौवन अवस्था में काम से अन्धा होकर स्त्रियों रूप वृक्षों से सघन उस यौवनरूप वन में विचरता है, इसलिये यहाँ भी वह हिताहित को नहीं जानता है । मध्यम (अधेड) अवस्था में पशु के समान अज्ञानी होकर बढी हुई तृष्णा को शान्त करने के लिये खेती व वाणिज्य आदि के द्वारा धन के कमाने में तत्पर रहकर खिन्न होता है,अतः इस समय भी हिताहित को नहीं जानता है तथा वृद्धावस्था के प्राप्त होने पर वह अधमरे के समान होकर शरीर से शिथिल हो जाता है, इसलिये यहां भी हिताहित का विवेक नहीं रहता है। ऐसी दशा में हे भव्यजीव ! कौन-सी अवस्था में धर्म का आचरण करके तू अपने जन्म को सफल कर सकता है ? ॥८९॥
Meaning : In the childhood, when the body is not fully developed, the man is ignorant of what is favourable and what is unfavourable. In the young-age, blinded by sex-desire, he roams around in the forest populated densely with trees that are young women; here also he is ignorant of what is favourable and what is unfavourable. In the middle-age, to pacify increased cravings, he troubles himself earning money through occupations like farming and commerce; here too he is ignorant of what is favourable and what is unfavourable. In the old-age, his body becomes flaccid, like the half-dead; here again he is ignorant of what is favourable and what is unfavourable. In such a situation, O worthy soul, when will you adopt right conduct that will make success of your life?

  भावार्थ 

भावार्थ :

विशेषार्थ- बाल्यावस्था में शरीर के परिपुष्ट न होनेसे प्राणी अपने हिताहित को ही नहीं समझ सकता है । यौवन अवस्था में प्रायः वह काम से पीडित होकर विषयसामग्री की खोज में रहता है। इसके पश्चात् अधेड अक्स्था में वह धन के कमाने में आसक्त होकर उसके द्वारा वृद्धिंगत धन की तृष्णा को समाप्त करना चाहता है,परंतु इससे उसका शांत होना तो दूर ही रहा,वह उत्तरोत्तर बढती ही अधिक है। अब रही वृद्धावस्था, सो यहां समस्त इन्द्रियां शिथिल हो जाती हैं, शरीर रोगाक्रांत हो जाता है, तथा स्मृति भी जाती रहती है । इस प्रकार से वे सब अवस्थायें यों ही बीत जाती हैं और वह अज्ञानी प्राणी कुछ भी आत्महित नहीं कर पाता । किन्तु हां जो विवेकी प्राणी हैं वे यौवन अवस्था में विषय सुख को भोग करके तत्पश्चात् उसे उच्छिष्ट के समान छोड देते हैं और आत्मकल्याण के मार्ग में प्रवृत्त हो जाते हैं। कुछ ऐसे भी महापुरुष होते हैं जो उन कष्टदायक विषयों में अनुरक्त न होकर प्रारम्भ में ही संयम एवं तप आदि के साधने में प्रवृत्त हो जाते हैं। परन्तु ऐसे महापुरुष विरले ही हैं, अधिक प्राणी तो वे ही अज्ञानी जीव हैं जो पूर्वोक्त अवस्थाओं से किसी भी अवस्था में आत्महित को नहीं करते हैं॥८९॥