+ बाल्यादि तीनों अवस्थाओं में कर्म जनित दुःख -
बाल्येऽस्मिन् यदनेन ते विरचितं स्मर्तुं च तन्नोचितं
मध्ये चापि धनार्जनव्यतिकरैस्तन्नास्ति यत्नापितः ।
वार्द्धिक्येऽप्यभिभूय दन्तदलनाद्याचेष्टितं निष्ठुरं
पश्याद्यापि विधेर्वशेन चलितुं वाउछत्यहो दुर्मते ॥९०॥
अन्वयार्थ : हे दुर्बुद्धि प्राणी! इस विधि (कर्म) ने बाल्यकाल में जो तेरा अहित किया है उसका स्मरण करना भी योग्य नहीं है । मध्यम अवस्था में भी ऐसा कोई दुख नहीं है जिसे कि उसने धनोपार्जन आदि कष्टप्रद कार्यों के द्वारा तुझे न प्राप्त कराया हो। वृद्धावस्था में भी उसने तुझे तिरस्कृत करके निर्दयतापूर्वक दांत तोड देने आदि का प्रयत्न किया है। फिर देख तो सही कि तेरा इतना अहित करने पर भी आज भी तू उक्त कर्म के ही वशीभूत होकर प्रवृत्ति करने की इच्छा करता है ॥९०॥
Meaning : O unwise soul! The harm that karmas did to you in the childhood is not fit even to be remembered. There is no misery that karmas did not make you suffer in the middle-age when, in pursuit of wealth, you undertook difficult tasks. In the old-age, karmas have punished you, disparagingly and mercilessly, with acts like uprooting your teeth. See, in spite of such unfavourable acts, you still wish to live under control of karmas.

  भावार्थ 

भावार्थ :

विशेषार्थ- यह अज्ञानी प्राणी दूसरों के विषय में हित और अहित की कल्पना करके तदनुसार उन्हें मित्र और शत्रु समझने लगता है। परन्तु वास्तव में जो उसका अहितकारी शत्रु कर्म है उसकी ओर इसका ध्यान ही नहीं जाता है । जीव बाल्यावस्था में जो गर्भ एवं जन्म आदि के असह्य दुख को भोगता है उसका कारण वह कर्म ही है । तत्पश्चात् यौवन अवस्था में भी कुछ कर्म के ही उदय से प्राणी कुटुम्ब के भरण-पोषण की चिन्ता से व्याकुल होकर धन के कमाने आदि में लगता है और निरन्तर दुःसह दुःख को सहता है। इसी कर्म के निमित्त से वृद्धावस्था में इन्द्रियां शिथिल पड़ जाती हैं, शरीर विकृत हो जाता है, और दांत टूट जाते हैं। इस प्रकार जो कर्म सब ही अवस्थाओं में उसका अनिष्ट कर रहा है उसे अहितकर न मानकर यह अज्ञानी प्राणी आगे भी उसी के वश में रहना चाहता है। लोक में देखा जाता है कि जो मनुष्य किसी का एक बार भी अनिष्ट करता है उससे वह भविष्य में किसी प्रकार का सम्बन्ध नहीं रखता। इसी प्रकार यदि कोई दांत तोडना तो दूर रहा, किन्तु यदि दांत तोडने के लिये कहता ही है तो मनुष्य उसे अपना अपमान करने वाला मानकर यथाशक्ति उसके प्रतीकार के लिये प्रयत्न करता है । फिर देखो कि जो कर्म एक बार ही नहीं, किन्तु बार बार प्राणी का अनिष्ट करता है तथा दांत तोडने के लिये कहता ही नहीं, बल्कि वृद्धावस्था में उन्हें तोड ही डालता है; उस अहितकर कर्म के ऊपर इस प्राणी को क्रोध नहीं आता । इसीलिये उसका प्रतीकार करना तो दूर रहा, किन्तु वह भविष्य में भी उसी कर्म के अधीन रहना चाहता है ॥९०॥