
भावार्थ :
विशेषार्थ- यह अज्ञानी प्राणी दूसरों के विषय में हित और अहित की कल्पना करके तदनुसार उन्हें मित्र और शत्रु समझने लगता है। परन्तु वास्तव में जो उसका अहितकारी शत्रु कर्म है उसकी ओर इसका ध्यान ही नहीं जाता है । जीव बाल्यावस्था में जो गर्भ एवं जन्म आदि के असह्य दुख को भोगता है उसका कारण वह कर्म ही है । तत्पश्चात् यौवन अवस्था में भी कुछ कर्म के ही उदय से प्राणी कुटुम्ब के भरण-पोषण की चिन्ता से व्याकुल होकर धन के कमाने आदि में लगता है और निरन्तर दुःसह दुःख को सहता है। इसी कर्म के निमित्त से वृद्धावस्था में इन्द्रियां शिथिल पड़ जाती हैं, शरीर विकृत हो जाता है, और दांत टूट जाते हैं। इस प्रकार जो कर्म सब ही अवस्थाओं में उसका अनिष्ट कर रहा है उसे अहितकर न मानकर यह अज्ञानी प्राणी आगे भी उसी के वश में रहना चाहता है। लोक में देखा जाता है कि जो मनुष्य किसी का एक बार भी अनिष्ट करता है उससे वह भविष्य में किसी प्रकार का सम्बन्ध नहीं रखता। इसी प्रकार यदि कोई दांत तोडना तो दूर रहा, किन्तु यदि दांत तोडने के लिये कहता ही है तो मनुष्य उसे अपना अपमान करने वाला मानकर यथाशक्ति उसके प्रतीकार के लिये प्रयत्न करता है । फिर देखो कि जो कर्म एक बार ही नहीं, किन्तु बार बार प्राणी का अनिष्ट करता है तथा दांत तोडने के लिये कहता ही नहीं, बल्कि वृद्धावस्था में उन्हें तोड ही डालता है; उस अहितकर कर्म के ऊपर इस प्राणी को क्रोध नहीं आता । इसीलिये उसका प्रतीकार करना तो दूर रहा, किन्तु वह भविष्य में भी उसी कर्म के अधीन रहना चाहता है ॥९०॥ |