+ बुद्धिमानों का प्रमादी होना शोचनीय -
प्रजैव दुर्लभा सुष्ठु दुर्लभा सान्यजन्मने ।
तां प्राप्य ये प्रमाद्यन्ते ते शोच्याः खलु धीमताम् ॥९४॥
अन्वयार्थ : प्रथम तो हिताहित का विचार करनेरूप बुद्धि ही दुर्लभ है, फिर वह परभव के हित का विवेक तो और भी दुर्लभ है। उस विवेक को प्राप्त करके भी जो जीव प्रमाद करते हैं वे बुद्धिमानों के लिये सोचनीय होते हैं ॥९४॥
Meaning : It is uncommon to have wisdom that is able to discriminate between what is beneficial and what is not. To have such discrimination pertaining to the next life is still more uncommon. The learned men pity those who, even after owning such wisdom, remain negligent (in following the appropriate conduct).

  भावार्थ 

भावार्थ :

विशेषार्थ- संसार में एकेन्द्रिय आदि को लेकर चौइन्द्रिय तक सब ही प्राणी मन से रहित होते हैं, इसीलिये उन्हें विचारात्मक बोध ही नहीं प्राप्त होता है। पंचेन्द्रियों में भी सभी जीवों के मन नहीं होता- कुछ के ही होता है । जिनके वह होता है उनको भी प्रायः आत्महित का विवेक नहीं रहता। फिर जो आत्महित का विवेक होने पर भी तदनुरूप आचरण करने में असावधान रहते हैं उनके ऊपर बुद्धिमानों को खेद होता है। कारण यह कि वे उपयुक्त सामग्री को प्राप्त करके भी हित के मार्ग में प्रवृत्त नहीं होते और इस प्रकार से उक्त सामग्री के विनष्ट हो जाने पर फिर उसका पुनः प्राप्त होना कठिन ही है ॥९४॥