
भावार्थ :
विशेषार्थ- प्राणी को जब तक सम्यग्दर्शन का लाभ नहीं होता है तब तक उसे अनेक दुख सहने पड़ते हैं । कारण यह है कि सम्यग्दर्शन के बिना उसे यह त्याज्य है और यह ग्राह्य है, इस प्रकार का विवेक नहीं हो पाता है । इसीलिये वह ऐसे भी अनेकों कार्यों को स्वयं करता है कि जिनसे मारने के लिए ले जायी गई बकरी के समान वह अपने आप ही विपत्ति में पडता है। जैसे- कोई एक व्यक्ति मारने के लिये बकरी को ले गया, किन्तु उसके मारने के लिये उसके पास कृपाण (तलवार या छुरी) नहीं था। इस बीच उस बकरी ने पैर से जमीन को खोदना प्रारंभ किया और इसके घातक को वहां भूमि में खड्ग प्राप्त हो गया जिससे कि उसने उसका वध कर डाला । इसी को 'अजा-कृपाणीय' न्याय कहा जाता है । इसी प्रकार सम्यग्दर्शन के बिना यह प्राणी भी अपने लिये ही कष्टकारक उपायों को करता रहता है। उसे जो अल्प समय के लिये कुछ अभीष्ट सामग्नी भी प्राप्त होती है वह ऐसे प्राप्त होती है जैसे कि अन्धा मनुष्य कभी हाथों को फैलाये और उनके बीच में वटेर पक्षी फंस जाय । ऐसा कदाचित् ही होता है, अथवा प्रायः वह असम्भव ही है। यही अवस्था संसारी प्राणियों के सुख की प्राप्ति की भी है ॥१००॥ |