
भावार्थ :
विशेषार्थ- अभिप्राय यह है कि कामी जन विषयान्ध होकर इच्छापूर्ति के लिये स्त्री आदि की खोज करते हैं और उन्हें प्राप्त करके वे उनमें इतने आसक्त हो जाते हैं कि फिर उनको अपने हिताहित का विवेक ही नहीं रहता। इस प्रकार से वे दोनों ही लोकों को नष्ट करते हैं। यहां इस बात पर खेद प्रगट किया गया है कि विद्वान् मनुष्य भी उस विषयतृष्णा के वशीभूत होकर उसकी पूर्ति के लिये तो असह्य दुख को सहते हैं, किन्तु तप-संयमादि के द्वारा उस विषयतृष्णा को ही नष्ट करने का अल्प दुख नहीं सहते जो कि वस्तुतः परिणाम में सुखकारक ही है । लोक में देखा जाता है कि यदि कोई मनुष्य किसी दूसरे मनुष्य का शिरच्छेद करने के लिये शस्त्र का प्रयोग करता है तो इसके प्रतिकारस्वरूप दूसरा भी उसका शिरच्छेद करनेके लिये उद्यत होता है । परन्तु कामीजन की दशा इससे विपरीत है, क्योंकि काम तो उनका खण्डन करता है- उनके सुख को नष्ट करता है, परन्तु उसका खण्डन करने के लिये वे स्वयं उद्यत नहीं होते। इतना ही नहीं, किन्तु उस घातक को भी वे अपना मित्र मानकर अनुराग ही करते हैं ॥१०१॥ |