
भावार्थ :
विशेषार्थ- जो मूर्ख जन पुरुषार्थ से रहित होते हैं उनकी सम्पत्ति यदि दुर्भाग्य से नष्ट हो जाती है तो वे इससे बहुत दुखी होते हैं। वे पश्चात्ताप करते हैं कि बडे परिश्रम से यह धन कमाया था, वह कैसे नष्ट हो गया, हाय अब उसके बिना कैसे जीवन बीतेगा आदि। इसके विपरीत जो पुरुषार्थी मनुष्य होते हैं वे जैसे धनको कमाते हैं वैसे ही उसका दानादि में सदुपयोग भी करते हैं । इस प्रकार के त्याग में उन्हें एक प्रकारका स्वाभिमान ही होता है। वे विचार किया करते हैं कि जब मैंने इसे कमाया है तो उसे सत्कार्य में खर्च भी करना ही चाहिये। इससे वह कुछ कम होनेवाला नहीं है । मैं अपने पुरुषार्थ से फिर भी उसे कमा सकता हूं आदि । यदि कदाचित् वह स्वयं ही नष्ट हो जाता है तो भी अपने पुरुषार्थ के बल पर उन्हें इसमें किसी प्रकार का खेद नहीं होता है। परन्तु इन दोनों के विपरीत जो तत्त्वज्ञानी हैं वे विचार करते हैं कि ये सब धन-सम्पत्ति आदि पर पदार्थ हैं, ये न मेरे और न मैं इनका स्वामी हूं। कर्म के उदय से उनका संयोग और वियोग हुआ ही करता है। ऐसा विचार करते हुए उन्हें सम्पत्ति के परित्याग में न तो शोक होता है और न अभिमान भी॥१०४॥ |