+ विरक्ति होने पर सम्पत्ति के त्याग में क्या आश्चर्य ? -
विरज्य संपदः सन्तस्त्यजन्ति किमिहाद्भुतम् ।
मा वमीत् किं जुगुप्सावान् सुभुक्तमपि भोजनम् ॥१०३॥
अन्वयार्थ : यदि सज्जन पुरुष विरक्त हो करके उन सम्पत्तियों को छोड देते हैं तो इसमें आश्चर्य ही क्या है ? कुछ भी नहीं । ठीक ही है- जिस पुरुष को घृणा उत्पन्न हुई है वह क्या भले प्रकार खाये गये भोजन का भी वमन (उलटी) नहीं करता है ? अर्थात् करता ही है ॥१०३॥
Meaning : Is it any wonder that noble men get detached from wealth and renounce it? Does a man, filled with disgust, not vomit up the food that he had earlier relished?

  भावार्थ 

भावार्थ :

विशेषार्थ- किसी व्यक्ति ने भोजन तो बडे आनन्द के साथ किया है, किन्तु यदि पीछे उसे उसमें विषादि की आशंका से घृणा उत्पन्न हो गई है तो इससे या तो उसे स्वयं का हो जाता है; अन्यथा वह प्रयत्नपूर्वक वमन करके उस मुक्त भोजन को निकाल देता है। इसमें वह कष्ट का अनुभव न करके विशेष आनन्द ही मानता है । ठीक इसी प्रकार से जिन विवेकी जनों को परिणाम में अहितकारक जानकर उस सम्पत्ति से घृणा उत्पन्न हो गई है उन्हें उसका परित्याग करनेमें किसी प्रकार का क्लेश नहीं होता, प्रत्युत उन्हें इससे अपूर्व आनन्द का ही अनुभव होता है। उसके परित्याग में कष्ट उन्हीं को होता है जो उसे हितकारी मानकर उसमें अतिशय अनुरक्त रहते हैं ॥१०३॥