+ बाल-ब्रह्मचारियों की प्रशंसा -
अभुक्त्वापि परित्यागात् स्वोच्छिष्टं विश्वमासितम् ।
येन चित्रं नमस्तस्मै कौमारब्रह्मचारिणे ॥१०९॥
अन्वयार्थ : आश्चर्य है कि जिसने स्वयं न भोगते हुए त्याग करके अपने उच्छिष्टरूप विश्व का उपभोग कराया है उस बालब्रह्मचारी के लिये नमस्कार हो॥१०९॥
Meaning : It is a wonder that the young celibate throws up for the world all objects of enjoyment that were available to him, without first enjoying these himself. Our salutation to him!

  भावार्थ 

भावार्थ :

विशेषार्थ- जिसने राज्यलक्ष्मी आदि के भोगने का अवसर प्राप्त होने पर भी उसे नहीं भोगा और तुच्छ समझकर यों ही छोड दिया है वह सर्वोत्कृष्ट त्यागी माना गया है। जैसे किसी को पहिले कुमारियों ने वरण कर लिया है, परंतु पश्चात् उसने उनके साथ विवाह न करके ब्रह्मचर्य को ही स्वीकार किया हो वह बालब्रह्मचारी उत्कृष्ट ब्रह्मचारी गिना गया है। यहां ऐसे ही सर्वोत्कृष्ट त्यागी को नमस्कार किया गया है कि जिसने लक्ष्मीके उपभोग का अवसर प्राप्त होने पर भी उसे नहीं भोगा, किंतु जो बालब्रह्मचारी के समान उससे अलिप्त रहा है। यहां इस बात पर आश्चर्य भी प्रगट किया गया हैं कि लोक में कोई भी उच्छिष्ट (उलटी या वांति) का उपभोग नहीं करता,परंतु ऐसे महापुरुषों ने अपने उच्छिष्ट का-बिना भोगे ही छोडी गई राज्यलक्ष्मी आदि का-भी दूसरों को उपभोग कराया। तात्पर्य यह कि जो महापुरुष राज्यलक्ष्मी आदि का अनुभव न करके पहिले ही उसे छोड़ देते हैं वे अतिशय प्रशंसनीय हैं । तथा इसके विपरीत जो अविवेकी जन उनके द्वारा तृणवत् छोडी गई उक्त राज्यलक्ष्मी को भोगने के लिये उत्सुक रहते हैं वे अतिशय निंदनीय हैं॥१०९॥