+ ध्यान तप का ध्येय और फल -
आराध्यो भगवान् जगत्त्रयगुरुर्वृत्तिः सतां संमता
क्लेशस्तच्चरणस्मृतिः क्षतिरपि प्रप्रक्षयः कर्मणाम् ।
साध्यं सिद्धिसुखं कियान् परिमितः कालो मनः साधनं
सम्यक्चेतसि चिन्तयन्तु विधुरं किं वा समाधौ बुधाः ॥११२॥
अन्वयार्थ : ध्यान में तीनों लोकों का स्वामी परमात्मा आराधना करने के योग्य है । इस प्रकार की प्रवृत्ति सज्जनों को अभीष्ट है। उसमें यदि कुछ कष्ट है तो केवल भगवान के चरणों का स्मरण ही है। उससे जो हानि भी होती है वह अनिष्ट कर्मों की ही हानि (नाश) होती है । उससे सिद्ध करने के योग्य मोक्षसुख है। उसमें काल भी कितना लगता है ? अर्थात् कुछ विशेष काल नहीं लगता- अन्तर्मुहूर्त मात्र ही लगता है । उसका साधन (कारण) मन है । अतएव हे विद्वानो! चित्त में उस परमात्मा का भले प्रकार विचार कीजिये, क्योंकि, उसके ध्यान में कष्ट ही क्या है ? कुछ भी नहीं है ॥११२॥
Meaning : The ‘pure-soul’ (paramātmā), the Lord of the three worlds, is worthy of adoration through meditation. Noble men take delight in such meditation. If at all such meditation involves any trouble, it is concentrating the mind on the Lotus Feet of the Lord. If at all it involves any loss, it is the loss of the evil karmas. The bliss of liberation is its fruit. How much time does it take? Not much; just an ‘antarmuhūrta’ (within 48 minutes). The control of the mind is its method. O wise men! Concentrate, therefore, on the ‘pure-soul’ (paramātmā) in a proper manner; what hardship does it entail?

  भावार्थ 

भावार्थ :

विशेषार्थ- यहां यह बतलाया गया है कि जो भव्य जीव मोक्षसुख के अभिलाषी हैं उन्हें सर्वज्ञ वीतराग परमात्मा का ध्यान करना चाहिये । उसका ध्यान करने से ध्याता स्वयं भी परमात्मा बन जाता है । जैसे कि आचार्य कुमुदचन्द्र ने भी कहा है-

" ध्यानाज्जिनेश भवतो भविनः क्षणेन देहं विहाय परमात्मदशां व्रजन्ति । तीव्रानलादुफ्लभावमपास्य लोके चामीकरत्वमचिरादिव धातुभेदाः ॥ "

अर्थात् हे जिनेन्द्र ! आपके ध्यान से भव्यजीव क्षणभर में ही इस शरीर को छोडकर परमात्मा अवस्था को इस प्रकार से प्राप्त हो जाते हैं जिस प्रकार कि धातुभेद (सुवर्णपाषाण) तीव्र अग्नि के संयोग से पत्थर के स्वरूप को छोडकर शीघ्र ही सुवर्णरूपता को प्राप्त हो जाते हैं ॥कल्याण 15॥

यहां उस ध्यान की उपादेयता को बतलाते हुए यह भी निर्देश कर दिया है कि उस ध्यान के करने में न तो कुछ क्लेश है और न किसी प्रकार की हानि भी है। उसमें यदि कुछ क्लेश है तो वह केवल जिनचरणों के स्मरणरूप ही है जो नगण्य है, तथा उससे जो हानि होनेवाली है वह है कर्मों की हानि, सो वह सबको अभीष्ट ही है। वह निरर्थक या अनिष्ट फलदायक भी नहीं है, बल्कि इष्ट फलप्रद (मोक्षसुखदायक) ही है। उसमें बहुत अधिक समय भी नहीं लगता है- उसका समय अधिक से अधिक अन्तर्मुहूर्त परिमित है । इसके अतिरिक्त उसके लिये विशेष साधनसामग्री की भी आवश्यकता नहीं होती, वह केवल अपने मन की एकाग्रता से ही होता है । इस प्रकार जब वह ध्यान सब प्रकार के क्लेश एवं हानि से रहित है, परिमित समय में ही अभीष्ट मोक्षसुख को देनेवाला है, तथा अपने मन के अतिरिक्त अन्य किसी भी कारण की अपेक्षा भी नहीं रखता है तब विवेकी जनों का यह कर्तव्य है कि वे उस कष्टरहित जिनचरणों का ध्यान अवश्य करें ॥११२॥