
भावार्थ :
विशेषार्थ- यहां यह बतलाया गया है कि जो भव्य जीव मोक्षसुख के अभिलाषी हैं उन्हें सर्वज्ञ वीतराग परमात्मा का ध्यान करना चाहिये । उसका ध्यान करने से ध्याता स्वयं भी परमात्मा बन जाता है । जैसे कि आचार्य कुमुदचन्द्र ने भी कहा है- " ध्यानाज्जिनेश भवतो भविनः क्षणेन देहं विहाय परमात्मदशां व्रजन्ति । तीव्रानलादुफ्लभावमपास्य लोके चामीकरत्वमचिरादिव धातुभेदाः ॥ " अर्थात् हे जिनेन्द्र ! आपके ध्यान से भव्यजीव क्षणभर में ही इस शरीर को छोडकर परमात्मा अवस्था को इस प्रकार से प्राप्त हो जाते हैं जिस प्रकार कि धातुभेद (सुवर्णपाषाण) तीव्र अग्नि के संयोग से पत्थर के स्वरूप को छोडकर शीघ्र ही सुवर्णरूपता को प्राप्त हो जाते हैं ॥कल्याण 15॥ यहां उस ध्यान की उपादेयता को बतलाते हुए यह भी निर्देश कर दिया है कि उस ध्यान के करने में न तो कुछ क्लेश है और न किसी प्रकार की हानि भी है। उसमें यदि कुछ क्लेश है तो वह केवल जिनचरणों के स्मरणरूप ही है जो नगण्य है, तथा उससे जो हानि होनेवाली है वह है कर्मों की हानि, सो वह सबको अभीष्ट ही है। वह निरर्थक या अनिष्ट फलदायक भी नहीं है, बल्कि इष्ट फलप्रद (मोक्षसुखदायक) ही है। उसमें बहुत अधिक समय भी नहीं लगता है- उसका समय अधिक से अधिक अन्तर्मुहूर्त परिमित है । इसके अतिरिक्त उसके लिये विशेष साधनसामग्री की भी आवश्यकता नहीं होती, वह केवल अपने मन की एकाग्रता से ही होता है । इस प्रकार जब वह ध्यान सब प्रकार के क्लेश एवं हानि से रहित है, परिमित समय में ही अभीष्ट मोक्षसुख को देनेवाला है, तथा अपने मन के अतिरिक्त अन्य किसी भी कारण की अपेक्षा भी नहीं रखता है तब विवेकी जनों का यह कर्तव्य है कि वे उस कष्टरहित जिनचरणों का ध्यान अवश्य करें ॥११२॥ |