+ तप करने की प्रेरणा -
दुर्लभमशुद्धमासुखमविदितमृतिसमयमल्पपरमायुः
मानुष्यमिहैव तपो मुक्तिस्तसैव तत्तप: कार्यम् ॥१११॥
अन्वयार्थ : यह मनुष्य पर्याय दुर्लभ, अशुद्ध और सुख से रहित (दुखमय) है। मनुष्य अवस्था में मरण का समय नहीं जाना जा सकता है। तथा मनुष्य की पूर्वकोटि प्रमाण उत्कृष्ट आयु भी देवायु आदि की अपेक्षा स्तोक है । परन्तु तप इस मनुष्य पर्याय में ही किया जा सकता है और मुक्ति उस तप से ही प्राप्त की जाती है। इसलिये तप का आचरण करना चाहिये ॥१११॥
Meaning : This human mode-of-existence – manuÈya paryāya – is difficult to attain, impure, and void of happiness. In this mode, the time of death cannot be known. Even the longest possible age of a human being is short when compared to the age of a celestial being. Still, austerity (tapa) can be observed only in the human mode-ofexistence and liberation can only be attained through observance of austerity

  भावार्थ 

भावार्थ :

विशेषार्थ- मुक्ति की प्राप्ति तप के द्वारा होती है और वह तप एक मात्र मनुष्य पर्याय में ही सम्भव है- अन्य किसी देवादि पर्याय में वह सम्भव नहीं है । अतएव उस मनुष्य पर्याय को पा करके तप का आचरण अवश्य करना चाहिये । कारण यह है कि वह मनुष्य पर्याय अतिशय दुर्लभ है । जीवों का अधिकांश समय नरक निगोद आदि में ही बीतता है। वह मनुष्य पर्याय यद्यपि स्वभावतः अशुद्ध ही है, फिर भी चूंकि रत्नत्रय को प्राप्त करके तप का आचरण एक उस मनुष्य पर्याय में ही किया जा सकता है, अतएव वह सर्वथा निन्दनीय भी नहीं है। आचार्य समन्तभद्र स्वामी निर्विचिकित्सित अंग का स्वरूप बतलाते हुए कहते हैं कि-

“स्वभावतोऽशुचौ काये रत्नत्रयपवित्रिते।

निर्जुगुप्सा गुणप्रीतिर्मता निर्विचिकित्सिता॥

अर्थात् यह मनुष्य शरीर यद्यपि स्वभाव से अपवित्र है, फिर भी वह रत्नत्रय की प्राप्ति का कारण होने से पवित्र भी है। अतएव रत्नत्रय का साधक होने से उसके विषय में घृणा न करके गुणों के कारण प्रेम ही करना चाहिये । इसी का नाम निर्विचिकित्सित अंग है ॥ र. श्रा. 13॥

इसके अतिरिक्त वह मनुष्य शरीर कुछ देवशरीर के समान सुख का भी साधन नहीं है कि जिससे सुख को छोडकर उसे तप के खेद में न लगाया जा सके। वह तो आधि और व्याधि का स्थान होने से सदा दुखरूप ही है। यहां पर यह शंका हो सकती थी कि उससे जो कुछ भी विषयसुख प्राप्त हो सकता है उसके भोगने के बाद वृद्धावस्था में उसे तपश्चरण में लगाना ठीक है, न कि उसके पूर्व में। इस शंका के परिहार स्वरूप ही यहां यह बतलाया है कि मृत्यु कब प्राप्त होगी, यह किसी को विदित नहीं हो सकता है । कारण कि देव-नारकियों के समान मनुष्यों में उसका समय नियत नहीं है- वह वृद्धावस्था में भी आ सकती है और उसके पूर्व बाल्यावस्था या युवावस्था में भी आ सकती है। इसके अतिरिक्त जहां देवों और नारकियों की आयु अकालमृत्यु से रहित होकर तेतीस सागरोपम तक होती है वहां मनुष्यों की आयु अधिक से अधिक एक पूर्वकोटि प्रमाण ही हो सकती है । अतएव अच्छा यही है कि सौभाग्य से यदि वह मनुष्य पर्याय प्राप्त हो गई है तो जल्दी से जल्दी उससे प्राप्त करने योग्य रत्नत्रय को प्राप्त कर लें, अन्यथा उसके व्यर्थ नष्ट हो जाने पर फिर से उसे प्राप्त करना अशक्य होगा ॥१११॥