
इहैव सहजान् रिपून् विजयते प्रकोपादिकान्
गुणाः परिणमन्ति यानसुभिरप्ययं वाञ्छति ।
पुरश्च पुरुषार्थसिद्धिरचिरात्स्वयं यायिनी
नरो न रमते कयं तपसि तापसंहारिणि ॥११४॥
अन्वयार्थ : जिस तप के प्रभाव से प्राणी इस लोक में क्रोधादि कषायोंरूप स्वाभाविक शत्रुओं पर विजय प्राप्त करता है तथा जिन गुणों को वह अपने प्राणों से भी अधिक चाहता है वे गुण उसे प्राप्त हो जाते हैं । इसके अतिरिक्त उक्त तप के प्रभाव से परलोक में उसे मोक्षरूप पुरुषार्थ की सिद्धि स्वयं ही शीघ्रता से प्राप्त होती है। इस प्रकार से जो तप प्राणियों के संताप को दूर करता है उसके विषय में मनुष्य कैसे नहीं रमता है? अर्थात् रमना ही चाहिये ॥११४॥
Meaning : In this world, the ascetic vanquishes his natural enemies, like the passions of anger, etc., through the power of austerity . He acquires merits which are dearer to him than own-life. Further, in the after-life he automatically and speedily attains liberation as the culmination of his human effort. This being the case, why should the man not engage in austerity that destroys all anguish?
भावार्थ
भावार्थ :
विशेषार्थ- यहां यह बतलाया गया है कि वह तप प्राणी के लिये उभय लोकों में ही हितकारक है। इस लोक में तो वह इसलिये हितकारक है कि जो क्रोध आदि कषायें अनादि काल से प्राणी का अहित कर रही हैं उनको वह तप नष्ट कर देता है । कारण यह है कि जबतक क्रोधादि कषायें जागृत रहती हैं तबतक वह इच्छानिरोधात्मक तप संभव ही नहीं है । इसके अतिरिक्त वह तप इसी लोक में क्षमा,शांति एवं विशिष्ट ऋद्धि आदि दुर्लभ गुणों को भी प्राप्त कराता है। वह चूंकि परलोक में मोक्ष पुरुषार्थ को सिद्ध कराता है अतएव वह परलोक में भी हित का साधक है । इस प्रकार विचार करके जो विवेकी जीव हैं वे उभय लोक के संताप को दूर करनेवाले उस तप में अवश्य प्रवृत्त होते हैं ॥११४॥
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