
तपोवल्ल्यां देहः समुपचितपुण्योर्जितफल:
शलाट्वग्रे यस्य प्रसव इव कालेन गलितः।
व्यशुष्यच्चायुष्यं सलिलमिव संरक्षितपयः
स धन्यः संन्यासाहुतभुजि समाधानचरमम् ॥११५॥
अन्वयार्थ : जिसका शरीर तपरूप बेलि के ऊपर पुण्यरूप महान् फल को उत्पन्न करके समयानुसार इस प्रकार से नष्ट हो जाता है जिस प्रकार कि कच्चे फल के अग्रभाग से फूल नष्ट हो जाता है,तथा जिसकी आयु सन्यासरूप अग्नि में रक्षा करनेवाले जल के समान धर्म और शुक्ल ध्यानरूप समाधि की रक्षा करते हुए सूख जाती है वह धन्य है-प्रशंसनीय है ॥११५॥
Meaning : The body of the ascetic vanishes when, in time, it has produced the excellent fruit of merit on the creeper of austerity ; it is like the flower that vanishes, in time and on its own, from the top of the unripe fruit. His age dries up safeguarding his asceticism including the virtuous and the pure meditation; it is like the water that dries up safeguarding the milk from the fire. Blessed is such an ascetic.
भावार्थ
भावार्थ :
विशेषार्थ – जिस प्रकार लता में उत्पन्न हुआ फूल फल को उत्पन्न करके उस कच्चे फल के अग्रभाग से स्वयं नष्ट हो जाता है उसी प्रकार जिसका शरीर तपश्चरण के द्वारा महान् पुण्य को उत्पन्न करके तत्पश्चात् स्वयं नष्ट हो जाता है तथा जिस प्रकार आग पर रखे हुए दूध में रहनेवाला पानी स्वयं जलता है, परंतु वह दूध की रक्षा करता है; उसी प्रकार जिस महा पुरुष की आयु ध्यानरूप अग्नि में स्वयं शुष्क होती है, परंतु धर्म एवं शुक्लरूप ध्यान की रक्षा करती है वह महात्मा सराहनीय है- उसी का मनुष्यजन्म पाना सफल है ॥११५॥
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