
भावार्थ :
विशेषार्थ- जो लोग यह कहा करते हैं कि मन अतिशय बलिष्ठ है, उसकी प्रेरणा से ही प्राणियों की प्रवृत्ति विषयभोगादि में होती है। उन्हें यह समझना चाहिये कि वह मन जिस प्रकार शब्द की दृष्टि से- व्याकरण की अपेक्षा- नपुंसक (नपुंसकलिंग) है उसी प्रकार वह अर्थ से भी नपुंसक है। कारण यह कि लोक में नपुंसक वही गिना जाता है जो कि पुरुषार्थ में असमर्थ होता है । सो वह मन ऐसा ही है, क्योंकि जिस प्रकार नपुंसक स्त्री के भोगने की अभिलाषा रखता हुआ भी इन्द्रिय की विकलता से उसे स्वयं तो भोग नहीं सकता है, परन्तु दूसरे जनोंको भोगते हुए देख-सुनकर वह आनन्दित अवश्य होता है। उसी प्रकार वह मन भी स्त्री के भोग के लिये व्याकुल तो होता है, पर भोग सकता नहीं है, भोगती वे स्पर्शनादि इन्द्रियां हैं जिन्हें कि भोगते हुए देखकर वह प्रसन्न होता है। इस प्रकार वह मन शब्द और अर्थ दोनों से ही नपुंसक सिद्ध है । अब जरा पुरुष की भी अवस्था को देखिये- वह शब्द और अर्थ दोनों से ही पुरुष है । वह शब्द से पुरुष (पुल्लिंग) है, यह तो व्याकरण से सिद्ध ही है । साथ ही वह अर्थ से भी पुरुष है । कारण यह कि वह सुधी है- विवेकी है- इसलिये जब वह अपने स्वरूप को समझ लेता है, तब लौकिक साधारण स्त्रियों की तो बात ही क्या, वह तो मुक्ति-रमणी के भी भोगने में समर्थ होता है । अतएव यह समझना भूल है कि मन पुरुष के ऊपर प्रभाव डालता है । वस्तुस्थिति तो यह है कि पुरुष ही उसे अपने नियन्त्रण में रखता है। अभिप्राय यह हुआ कि जो पुरुष कहला करके भी यदि अपने मन के ऊपर नियन्त्रण नहीं रख सकता है तो वह वास्तव में पुरुष कहलाने के योग्य नहीं है ॥१३७॥ |