+ स्त्रियों को चन्द्रमा की उपमा देना उचित नहीं है -
तव युवतिशरीरे सर्वदोदोषैकपात्रे
रतिरमृतमयूखाद्यर्थसाधर्म्यतश्चेत् ।
ननु शुचिषु शुभेषु प्रीतिरेष्वेव साध्वी
मदनमधुमदान्धे प्रायशः को विवेकः ॥१३६॥
अन्वयार्थ : हे भव्य ! सब दोषों के अद्वितीय स्थानभूत स्त्री के शरीर में यदि चन्द्र आदि पदार्थों के साधर्म्य (समानता) से तेरा अनुराग है तो फिर निर्मल और उत्तम इन्हीं (चन्द्रादि) पदार्थों के विषय में अनुराग करना श्रेष्ठ है। परन्तु कामरूप मद्य के मद (नशा) से अन्धे हुए प्राणी में प्रायः वह विवेक ही कहां होता है ? अर्थात् उसमें वह विवेक ही नहीं होता है ॥१३६॥
Meaning : O worthy soul! The woman’s body is unequalled home to all imperfections but if you get attached to it due to its resemblance with things like the moon, why not, instead, get attached to these stainless and first-rate things? But what discernment can generally be found in the man blinded by intoxication of the wine of lust?

  भावार्थ 

भावार्थ :

विशेषार्थ- स्त्री का शरीर अतिशय निन्द्य एवं अनेक दोषों का स्थान है। फिर भी कविजन उसके मुख को चन्द्र की, नेत्रों को कमल की, दांतों को हीरे की, तथा स्तनों को अमृतकलशों आदि की उपमा देते हैं जिससे कि बेचारे भोले प्राणी उसके निन्द्य शरीर को सुन्दर मानकर उसमें अनुराग करते हैं। वे यह नहीं समझते कि जिन चन्द्रादि की समानता बतलाकर स्त्री के शरीर को सुन्दर बतलाया जाता है वास्तव में तो वे ही सुन्दर कहलाये, अतः उनमें ही अनुराग करना उत्तम है, न कि उस घृणित स्त्री के शरीरमें । परन्तु क्या किया जाय ? जिस प्रकार मद्यपान करने वाले मनुष्य को उन्मत्त हो जाने के कारण कुछ भी भले बुरे का ज्ञान नहीं रहता है उसी प्रकार काम से उन्मत्त हुए प्राणियों को भी अपने हिताहितका विवेक नहीं रहता है । इसलिये वे मल-मूत्रादि से परिपूर्ण स्त्री के उस निन्द्य शरीर में तो अनुराग करते हैं, किन्तु उन व्रत-संयमादि में अनुराग नहीं करते जो कि उन्हें संसार के दुःख से उद्धार करानेवाले है ॥१३६॥