
भावार्थ :
विशेषार्थ- स्त्री का शरीर अतिशय निन्द्य एवं अनेक दोषों का स्थान है। फिर भी कविजन उसके मुख को चन्द्र की, नेत्रों को कमल की, दांतों को हीरे की, तथा स्तनों को अमृतकलशों आदि की उपमा देते हैं जिससे कि बेचारे भोले प्राणी उसके निन्द्य शरीर को सुन्दर मानकर उसमें अनुराग करते हैं। वे यह नहीं समझते कि जिन चन्द्रादि की समानता बतलाकर स्त्री के शरीर को सुन्दर बतलाया जाता है वास्तव में तो वे ही सुन्दर कहलाये, अतः उनमें ही अनुराग करना उत्तम है, न कि उस घृणित स्त्री के शरीरमें । परन्तु क्या किया जाय ? जिस प्रकार मद्यपान करने वाले मनुष्य को उन्मत्त हो जाने के कारण कुछ भी भले बुरे का ज्ञान नहीं रहता है उसी प्रकार काम से उन्मत्त हुए प्राणियों को भी अपने हिताहितका विवेक नहीं रहता है । इसलिये वे मल-मूत्रादि से परिपूर्ण स्त्री के उस निन्द्य शरीर में तो अनुराग करते हैं, किन्तु उन व्रत-संयमादि में अनुराग नहीं करते जो कि उन्हें संसार के दुःख से उद्धार करानेवाले है ॥१३६॥ |