
भावार्थ :
विशेषार्थ- पूर्व श्लोक में यह बतलाया था कि जो साधु तप को छोडकर राज्यलक्ष्मी का उपभोग करने लगता है वह अतिलघु- अतिशय निन्दा का पात्र- बन जाता है । इसी बात को पुष्ट करनेके लिये यहां यह उदाहरण दिया गया है कि जिस प्रकार जब तक फूल मुरझाते नहीं और अपनी सुगन्धि को नहीं छोडते हैं तब तक उन्हें देव भी शिरपर धारण करते हैं, किन्तु वे ही जब मुरझाकर सुगन्धि से रहित हो जाते हैं तब उन्हें कोई पांव से भी नहीं छूता है । ठीक इसी प्रकार से जब तक साधु तप-संयम आदि में स्थित रहता है तब तक साधारण मनुष्यों की तो बात ही क्या है, किन्तु महान देव भी उसकी पूजा करते हैं । परन्तु पीछे यदि वही तप से भ्रष्ट होकर विषयों में प्रवृत्त हो जाता है तो फिर उसको कोई भी नहीं पूछता है- सभी उसकी निन्दा करते हैं । अभिप्राय यह है कि पूजा-प्रतिष्ठा का कारण गुण हैं, न कि बाह्य धन-सम्पत्ति आदि॥१३९॥ |