
भावार्थ :
विशेषार्थ- यहां चन्द्र को लक्ष्य बनाकर ऐसे साधु की निन्दा की गई है जो कि साधु के वेष में रहकर उसको (साधुत्व को) मलिन करता है । अभिप्राय यह है कि जिस प्रकार चन्द्र में आल्हादजनकत्व आदि अनेक गुणों के होने पर भी उसमें जो थोडी-सी कालिमा दृष्टिगोचर होती है वह उसके अन्य गुणों की प्रतिष्ठा नहीं होने देती है। इतना ही नहीं, बल्कि वह उस थोडे-से दोष के कारण कलङ्की कहा जाता है ! यदि वह कदाचित् राहु के समान पूर्णरूप से काला होता तो फिर उसकी ओर किसी का ध्यान भी नहीं जाता। उसकी इस मलिनता को प्रगट करनेवाली उसकी ही वह निर्मल चांदनी है। ठीक इसी प्रकार से जो साधु व्रत-संयमादिक पालन करते हुए भी यदि उस साधुत्व को मलिन करने वाले किसी दोष से संयुक्त होता है तो फिर वह उक्त चन्द्रमा के समान कलंकी (निन्द्य) हो जाता है। इससे तो यदि कहीं वह गृहस्थ होता तो अच्छा था-वैसी अवस्था में उसकी ओर किसी की दृष्टि भी नहीं जाती । कारण इसका यह है कि बहुत-से गुणों के होने पर यदि कोई दोष होता है वह लोगों की दृष्टि में अवश्य आ जाता है। जैसे कि यदि किसी स्वच्छ कपडे पर कहीं से काला धब्बा पड जाता है तो वह अवश्य ही देखने में आ जाता है,किन्तु वैसा ही धब्बा यदि किसी मलिन वस्त्र पर पड जाता है तो न तो प्रायः वह देखने में ही आता है और न कोई उसके ऊपर किसी प्रकार की टीका-टिप्पणी भी करता है । तात्पर्य यह है कि साधु को अपने निर्मल मुनिधर्म को सुरक्षित रखने के लिये छोटे-से भी छोटे दोष से बचना चाहिये, अन्यथा उसे इस लोक में निन्दा और परलोक में दुर्गति का पात्र बनना ही पडेगा ॥१४०॥ |