
भावार्थ :
विशेषार्थ- वर्तमान में जो जीवों की सन्मार्ग में कुछ प्रवृत्ति देखी जाती है, वह प्रायः दण्ड के भय से ही देखी जाती है। परंतु वह दण्ड राजा के आश्रित है- वह जिनसे धनादि का लाभ देखता है उन्हें दण्डित करता है। इससे यद्यपि साधारण जनता में कुछ सदाचार की प्रवृत्ति हो सकती है, तथापि उस दण्ड के भय से साधुजनों में उसकी सम्भावना नहीं की जा सकती है। कारण यह है कि साधुओं के पास धन तो रहता नहीं है जिससे कि राजा उनकी ओर दृष्टिपात करे । दूसरे, धर्मनीति के अनुसार यह कार्य राजा के अधिकार का है भी नहीं । ऐसी अवस्था उक्त साधुओं को यदि सन्मार्ग में प्रवृत्त करा सकते हैं तो उनके आचार्य ही करा सकते हैं । परंतु वे आचार्य वर्तमान में आत्मप्रतिष्ठा के इच्छुक अधिक हैं, इससे वे शिष्यों को यथेच्छ प्रवृत्ति को देख करके भी उन्हें दण्ड नहीं देते हैं । इसका कारण यह है कि दण्ड देते हुए उन्हें यह भय रहता है कि यदि दण्ड देने से वे शिष्य असंतुष्ट हो गये तो फिर मुझे प्रणाम आदि न करेंगे । इसके अतिरिक्त यह भी संभव है कि वे मेरे संघ से पृथक् हो जाय । ऐसी अवस्थामें मेरे इस आचार्य पद की क्या प्रतिष्ठा रहेगी? बस इसी भय से वे उन्हें दण्ड देने में असमर्थ हो जाते हैं । परिणाम इसका यह होता है कि उनकी उच्छृंखल प्रवृत्ति उत्तरोत्तर बढती ही जाती है और इस प्रकार से मुनिव्रतों को उत्तम रीति से परिपालन करने वाले विरले ही दिखने लगे हैं। यह साधुओं की दुरवस्था ग्रन्थकार श्री गुणभद्राचार्य के भी समय में हो चुकी थी। इसीलिये उन्होंने यहां यह स्पष्ट संकेत किया है कि प्रतिष्ठा लोलुपी आचार्यों का अपने संघों पर समुचित शासन न रह सकने से समीचीन साधुधर्म का आवरण करनेवाले साधु कान्तिमान् मणियों के समान बहुत ही थोडे रह गये हैं ॥१४९॥ |