
एते ते मुनिमानिनः कवलिताः कान्ताकटाक्षेक्षणै रङगालग्नशरावसन्नहरिणप्रख्या भ्रमन्त्याकुलाः ।
संघर्तुं विषयाटवीस्थलतले स्वान् क्वाप्यहो न क्षमाः
मा वाजीन्मरुदाहताभ्रचपलैः संसर्गमेभिर्भवान् ॥१५०॥
अन्वयार्थ : ये जो अपने को मुनि मानने वाले साधु हैं वे स्त्रियों के कटाक्षपूर्ण अवलोकनों के ग्रास बनकर शरीर में लगे हुए बाणों से खेद को प्राप्त हुए हरिणों के समान व्याकुल होकर परिभ्रमण करते हैं । परन्तु खेद है कि वे विषयरूप वनस्थली के मध्य में अपने को कहीं पर भी स्थिर रखने के लिये समर्थ नहीं होते हैं । हे भव्य! तू वायु से ताडित हुए मेघों के समान अस्थिरता को प्राप्त हुए इन साधुओं की संगति को प्राप्त न हो॥१५०॥
Meaning : Those who consider themselves ascetics, when bitten by the half-glances of women, roam around in distress; like deer with their bodies pierced by arrows. It is a pity that, in midst of the forest of desires, they are not able to rest themselves anywhere. O worthy soul! Do not get into the company of such unpredictable ascetics who are fickle like the clouds beaten by winds.
भावार्थ
भावार्थ :
विशेषार्थ- जिस प्रकार अहेरी के द्वारा मारे गये बाणों से व्यथित हुए हिरण इधर ऊधर वन में भागते हैं परन्तु कहीं भी अपने को स्थिर नहीं रख पाते हैं उसी प्रकार मुनिधर्म से भ्रष्ट होकर भी अपने को मुनि मानने वाले जो साधु स्त्रियों की कटाक्षपूर्ण चिंतवन से पीडित होकर विषय-वन में विचरण करते हुए कहीं पर भी स्थिर नहीं रहते हैं, किन्तु एक से दूसरे और दूसरे से तीसरे आदि विषयों की सदा अभिलाषा रखकर संतप्त होते हैं,वे मुनि ऐसे अस्थिरचित्त हैं जैसे कि वायु से प्रेरित होकर बादल अस्थिर होते हैं । ऐसे साधुओं के संसर्ग में रहकर कोई भी प्राणी आत्महित नहीं कर सकता है । इसीलिये यहां यह उपदेश दिया गया है कि जो भव्य जीव अपना हित करना चाहते हैं उन्हें ऐसे भ्रष्ट साधुओं से दूर ही रहना चाहिये॥१५०॥
|