
भावार्थ :
विशेषार्थ- जिसके पास धन रहता है उसके पास से धन प्राप्त करने की बहुत जन अपेक्षा करते हैं। परन्तु उसके पास कितना भी अधिक धन क्यों न हो, रहेगा वह सीमित ही । और उधर याचक असीमित तथा अभिलाषा भी उनकी असीमित ही रहती है। ऐसी अवस्था में यदि वह धनवान अपने समस्त ही धन को याचकों में वितीर्ण कर दे तो भी क्या वे सब याचक तृप्त हो सकते हैं? नहीं हो सकते। इसलिए जो मनुष्य यह सोचकर धन के कमाने में उद्यत होता है कि मैं धन का संचय करके याचकों को दूंगा और उनकी अभिलाषा को पूर्ण करूंगा, उसका वैसा विचार करना अज्ञानता से परिपूर्ण है। अतएव ऐसे धन की अपेक्षा निर्धन (निर्ग्रन्थ) रहना ही अधिक श्रेष्ठ है। कारण कि ऐसा करने से जो निराकुलता धनवान को कभी नहीं प्राप्त हो सकती है वह इस निर्धन (साधु) को अनायास ही प्राप्त हो जाती है और इस प्रकारसे वह आत्यन्तिक सुख को भी प्राप्त कर लेता है ॥१५५॥ |