
भावार्थ :
विशेषार्थ- प्राणी की आशा या इच्छा एक प्रकार का गड्ढा है जो इतना गहरा है कि यदि उसमें तीनों ही लोकों की सम्पदा भर दी जाय तो भी वह पूरा नहीं होगा। यहां इस बात पर आश्चर्य प्रगट किया गया है कि इतने गहरे भी उस आशारूप गड्ढे में स्थित पदार्थों को उसमें से बाहिर निकालकर सज्जन पुरुषों ने उसे पृथिवीतल के समान कर दिया है । सो है भी यह आश्चर्य की सी बात । कारण कि लोक में तो ऐसा देखा जाता है कि जिस गड्ढे के भीतर से मिट्टी, पत्थर या चांदी-सोना आदि जितने अधिक प्रमाण में बाहिर निकाला जाता है उतना ही वह गड्ढा और भी अधिक गहरा होता जाता है। परन्तु सज्जन पुरुषों ने उस आशारूप गड्ढे में स्थित (अभीष्ट) पदार्थों को उससे बाहिर निकालकर गहरा करने के बदले उसे पूरा कर दिया है । अभिप्राय यह है कि जितनी जितनी इच्छा की पूर्ति होती जाती है उतनी ही अधिक तृष्णा और भी बढती जाती है । इसीलिये विवेकी मनुष्य जब उस तृष्णा को बढाने वाले विषयभोगों की आशा ही नहीं करते हैं तब उनका वह आशारूप गड्ढा क्यों न पूर्ण होगा? अवश्य ही पूर्ण होगा ॥१५७॥ |