
भावार्थ :
विशेषार्थ- तप की वृद्धि का कारण शरीर है। यदि शरीर स्वस्थ होगा तो उसके आश्रय से अनशनादि तपों को भले प्रकार किया जा सकता है, और यदि वह स्वस्थ नहीं है अशक्त है- तो फिर उसके आश्रय से तपश्चरण करना सम्भव नहीं है। इसीलिये साधु तपश्चरण की अभिलाषा से शरीर को स्थिर रखने के लिये दाता के द्वारा नवधा भक्तिपूर्वक दिये गये आहार को स्वल्प मात्रा में ग्रहण करता है । इसके लिये भी वह स्वयं आहार को नहीं बनाता है और अन्य से भी नहीं बनवाता है सो तो ठीक ही है,किन्तु वह अपने निमित्त से बनाये गये (उद्दिष्ट) भोजन को भी नहीं ग्रहण करता है । साथ ही वह इन्द्रियदमन और सहनशीलता प्राप्त करने के लिये एक-दो गृह आदि का नियम भी करता है। इस प्रकार से यदि उसे निरंतराय आहार प्राप्त होता है तो वह उसे ग्रहण करता है, अन्यथा वापिस चला आता है और इससे किसी प्रकार के खेद का अनुभव नहीं करता है- निरंतराय आहार के न प्राप्त होने से वह दाता को बुरा नहीं समझ सकता है । उक्त प्रकार से प्राप्त हुए आहार को ग्रहण करता हुआ भी साधु इस परवशता के लिये कुछ लज्जा का अनुभव करता है । ऐसी स्थिति में वह साधु आहार के अतिरिक्त अन्य (धन अथवा वसतिका आदि) किसी वस्तु की अपेक्षा करेगा,यह तो सर्वथा ही असम्भव हैं ॥१५८॥ |