+ रागादि का नाश करने की प्रेरणा -
इह विनिहतबह्वारम्भबाह्योरुशत्रो
रूपचितनिजशक्तेर्नापरः कोप्यपाय:।
अशनशयनयानस्थानदत्तावधान:
कुरु तव परिरक्षामान्तरान् हन्तुकामः ॥१६९॥
अन्वयार्थ : हे भव्य ! बहुत पापकर्म के आरम्भरूप बाहिरी शत्रु को नष्ट करके अपनी आत्मीक शक्ति को बढा लेने वाले तेरे लिये अन्य कोई भी दुख का कारण नहीं हो सकता है । तू राग-द्वेषादिरूप आन्तरिक शत्रुओं को नष्ट करने का अभिलाषी होकर भोजन,शयन, गमन एवं स्थिति आदि क्रियाओं के विषयमें सावधान होता हुआ अपने संयम की रक्षा कर ॥१६९॥
Meaning : O worthy soul! For you, who has destroyed the external enemy in form of excessive sinful activity and increased the internal soul-strength, there can be no remaining cause of misery. Desirous of extirpating your internal enemies (of attachment and aversion), continue safeguarding your austerities by being vigilant in activities of eating, sleeping, roaming and sitting.

  भावार्थ 

भावार्थ :

विशेषार्थ- जिस प्रकार राजा को राज्य को भ्रष्ट कर देने वाले बाह्य और अभ्यन्तर दो प्रकार के शत्रु होते हैं उसी प्रकार मुनियों को भी उस पद से भ्रष्ट कर देनेवाले वे ही दो प्रकार के शत्रु होते हैं । यदि राजा बुद्धिमान है तो वह जिस प्रकार अपने बाह्य शत्रुओं को- विद्वेषी अन्य राजा आदि को- अपने अधीन रखता है, उसी प्रकार वह अपने काम, क्रोध, लोभ, मद, मान और हर्ष रूप अन्तरंग शत्रुओं ( अयुक्तितः प्रणीताः काम-क्रोध-लोभ-मद-मान-हर्षाः क्षितीशानाम तरङगोऽरिषड्वर्गः । नी. वा. अरिषड्वर्गसमुद्देश १. ) को भी वश में रखता है । इस प्रकार से उसका राज्य निःसन्देह सुरक्षित रहता है। इसी प्रकार से जो विवेकी साधु मुनिपद से भ्रष्ट करने वाले हिंसाजनक आरम्भादिरूप बाह्य शत्रुओं से रहित होकर राग-द्वेषादिरूप अन्तरङग शत्रुओं को भी जीतने के लिये भोजन-शयनादि क्रियाओं में सदा सावधान रहता है संयम व तप से भ्रष्ट नहीं होता है- वह भी निश्वय से अपने साधुपद को सुरक्षित रखकर निराकुल सुख को प्राप्त करता है ॥१६९॥