
भावार्थ :
विशेषार्थ- जिस प्रकार बंदर स्वभाव से यद्यपि अतिशय चंचल होता है, परंतु यदि उसे फल-फूलों से परिपूर्ण कोई विशाल वृक्ष उपलब्ध हो जाता है तो वह उपद्रव करना छोडकर उसके ऊपर रम जाता है। इसी प्रकार प्राणियों का मन भी अतिशय चंचल होता है, उसके निमित्त से ही प्राणी बाह्य पर पदार्थों में इष्टानिष्ट की कल्पना करके राग-द्वेष को प्राप्त होते हैं। साधारण मनुष्यों की तो बात ही क्या, किन्तु कभी कभी साधुओं का भी मन चंचल हो उठता है- वे भोजनादि के विषय में राग-द्वेष का अनुभव करने लगते हैं। इसीलिये यहां ऐसे ही साधु को लक्ष्य करके यह उपदेश दिया गया है कि वह बन्दर के समान चंचल अपने मन को श्रुतरूप वृक्ष के ऊपर रमावे- उसके चिन्तन में प्रवृत्त करें। जिस प्रकार वृक्ष फूलों और फलों के भार से झुका हुआ होता है उसी प्रकार वह श्रुतरूप वृक्ष भी अनेक धर्मात्मक पदार्थों के भार से (विचार से) नम्रीभूत है, वृक्ष यदि पत्रों से व्याप्त होता है तो यह श्रुतरूप वृक्ष भी पत्तों के समान अर्धमागधी आदि भाषाओंरूप वचनों से व्याप्त हैं, वृक्ष में जहां अनेकों शाखाओं का विस्तार होता है वहां इस श्रुतरूप वृक्ष में भी उन शाखाओं के समान नयों का विस्तार अधिक है, जैसे वृक्ष उन्नत (ऊंचा) होता है वैसे ही श्रुतवृक्ष भी उन्नत (महान्-साधारण जनों को दुर्लभ) है,तथा जिस प्रकार वृक्ष को स्थिर रखनेवाली उसकी कितनी ही जडें फैली होती हैं,तथा उसी प्रकार अनेक (336) भेदोंरूप जो विस्तृत मतिज्ञान है वह इस श्रुतरूप वृक्ष की गहरी जड के समान है जिसके कि निमित्त से वह स्थिर होता है। इस प्रकार उस चंचल मन को बाह्य विषयों की ओर से खींचकर इस श्रुतरूप वृक्ष के ऊपर रमाने से-श्रुत के अभ्यास में लगाने से- उसके निमित्त से होनेवाली राग-द्वेषरूप प्रवृत्ति नष्ट हो जाती है। इससे कर्मों की संवरपूर्वक निर्जरा होकर मोक्षसुख की प्राप्ति होती है॥१७०॥ |