+ शास्त्राभ्यास की प्रेरणा -
अनेकान्तात्मार्थप्रसवफलभारातिविनते
वचःपर्णाकीर्णे विपुलनयशाखाशतयुते ।
समुत्तुङगे सम्यक् प्रततमतिमूले प्रतिदिनं
श्रुतस्कन्धे धीमान्, रमयतु मनोमर्कटममुम् ॥१७०॥
अन्वयार्थ : जो श्रुतस्कन्धरूप वृक्ष अनेक धर्मात्मक पदार्थरूप फूल एवं फलों के भार से अतिशय झुका हुआ है, वचनोंरूप पत्तों से व्याप्त है, विस्तृत नयोंरूप सैकडो शाखाओं से युक्त है, उन्नत है, तथा समीचीन एवं विस्तृत मतिज्ञानरूप जड से स्थिर है उस श्रुतस्कन्धरूप वृक्ष के ऊपर बुद्धिमान साधु के लिये अपने मनरूपी बंदर को प्रतिदिन रमाना चाहिये ॥१७०॥
Meaning : The wise ascetic should everyday beguile his mindmonkey on the Scripture-tree (śrutaskandha) that is drooping down with load of flowers and fruits in form of substances (padārtha) having varied attributes, covered with foliage in form of spoken-words (vacana), having hundreds of branches in form of points-of-view (naya), lofty, and steady with deep roots of right and comprehensive sensory-knowledge (matijñāna).

  भावार्थ 

भावार्थ :

विशेषार्थ- जिस प्रकार बंदर स्वभाव से यद्यपि अतिशय चंचल होता है, परंतु यदि उसे फल-फूलों से परिपूर्ण कोई विशाल वृक्ष उपलब्ध हो जाता है तो वह उपद्रव करना छोडकर उसके ऊपर रम जाता है। इसी प्रकार प्राणियों का मन भी अतिशय चंचल होता है, उसके निमित्त से ही प्राणी बाह्य पर पदार्थों में इष्टानिष्ट की कल्पना करके राग-द्वेष को प्राप्त होते हैं। साधारण मनुष्यों की तो बात ही क्या, किन्तु कभी कभी साधुओं का भी मन चंचल हो उठता है- वे भोजनादि के विषय में राग-द्वेष का अनुभव करने लगते हैं। इसीलिये यहां ऐसे ही साधु को लक्ष्य करके यह उपदेश दिया गया है कि वह बन्दर के समान चंचल अपने मन को श्रुतरूप वृक्ष के ऊपर रमावे- उसके चिन्तन में प्रवृत्त करें। जिस प्रकार वृक्ष फूलों और फलों के भार से झुका हुआ होता है उसी प्रकार वह श्रुतरूप वृक्ष भी अनेक धर्मात्मक पदार्थों के भार से (विचार से) नम्रीभूत है, वृक्ष यदि पत्रों से व्याप्त होता है तो यह श्रुतरूप वृक्ष भी पत्तों के समान अर्धमागधी आदि भाषाओंरूप वचनों से व्याप्त हैं, वृक्ष में जहां अनेकों शाखाओं का विस्तार होता है वहां इस श्रुतरूप वृक्ष में भी उन शाखाओं के समान नयों का विस्तार अधिक है, जैसे वृक्ष उन्नत (ऊंचा) होता है वैसे ही श्रुतवृक्ष भी उन्नत (महान्-साधारण जनों को दुर्लभ) है,तथा जिस प्रकार वृक्ष को स्थिर रखनेवाली उसकी कितनी ही जडें फैली होती हैं,तथा उसी प्रकार अनेक (336) भेदोंरूप जो विस्तृत मतिज्ञान है वह इस श्रुतरूप वृक्ष की गहरी जड के समान है जिसके कि निमित्त से वह स्थिर होता है। इस प्रकार उस चंचल मन को बाह्य विषयों की ओर से खींचकर इस श्रुतरूप वृक्ष के ऊपर रमाने से-श्रुत के अभ्यास में लगाने से- उसके निमित्त से होनेवाली राग-द्वेषरूप प्रवृत्ति नष्ट हो जाती है। इससे कर्मों की संवरपूर्वक निर्जरा होकर मोक्षसुख की प्राप्ति होती है॥१७०॥