
भावार्थ :
विशेषार्थ- बाह्य और आभ्यन्तर निमित्त को पाकर जीव और अजीव द्रव्य अपनी जाति को न छोडते हुए जो अवस्थान्तर को प्राप्त होते हैं, इसका नाम उत्पाद है- जैसे अपनी पुद्गल जाति को न छोडकर मिट्टी के पिण्डक घट पर्याय को प्राप्त करना। उक्त दोनों ही कारणों से द्रव्य की जो पूर्व अवस्था का नाश होता है इसे व्यय (नाश) कहा जाता है- जैसे उस घट की उत्पत्ति में उसी मिट्टी के पिण्ड की पिण्डरूप पूर्व पर्याय का नाश । अनादि पारिणामिक स्वभाव से वस्तु का उत्पाद और नाश से रहित होकर स्थिर रहने का नाम ध्रौव्य है । ये तीनों ही अवस्थायें प्रत्येक वस्तु में प्रति समय रहती हैं। कारण यह कि प्रत्येक पदार्थ सामान्य-विशेषात्मक है, अतएव जहां विशेषरूप से वस्तु (घट) का उत्पाद होता है वहीं उसका (मृत्पिण्ड का) नाश भी होता है। परन्तु सामान्य (पौद्गलिकत्व) स्वरूप से न वस्तु का उत्पाद होता है और न नाश भी- वह सामान्य (पुद्गल) स्वरूप से दोनों (घट और मृत्पिण्ड) ही अवस्थाओं में विद्यमान रहती है । इस बात का समर्थन स्वामी समन्तभद्राचार्य ने निम्न दृष्टान्त के द्वारा किया है- घट-मौलि-सुवर्णार्थी नाशोत्पादस्थितिष्वयम् । शोक-प्रमोद-माध्यस्थ्यं जनो याति सहेतुकम् ॥ अर्थात् किसी सुनार ने सुवर्ण के घट को तोडकर उससे मुकुट को बनाया। इसको देखकर जो व्यक्ति घट को चाहता था वह तो पश्चात्ताप करता है, जो मुकुट को चाहता था वह हर्षित होता है, और जो सुवर्ण मात्र को चाहता था वह हर्ष-विषाद दोनों से रहित होकर मध्यस्थ ही रहता है ॥ आ. मी. ५९॥ इससे सिद्ध होता है कि प्रत्येक वस्तु प्रत्येक समय में उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यस्वरूप है । ऐसा मानने पर ही उसके विषय में होने वाली भेदबुद्धि और अभेदबुद्धि संगत होती है, अन्यथा वह घटित नहीं हो सकती है; और वैसी बुद्धि होती अवश्य है। तभी तो भेदबुद्धि के कारण घट को टूटा हुआ देखकर उसका अभिलाषी दुखी और मुकुट का अभिलाषी हर्षित होता है। किन्तु उन दोनों ही अवस्थाओं में अभेदबुद्धि के रहने से सुवर्ण का अभिलाषी न दुखी होता है और न हर्षित भी। इसलिये प्रत्येक पदार्थ प्रतिसमय उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य स्वरूप है; ऐसा निश्चय करना चाहिये॥१७२॥ |