+ वस्तु का अनेकान्तिक स्वरूप -
तदेव तदतद्रूपं प्राप्नुवन्न विरंस्यति ।
इति विश्वमनाद्यन्तं चिन्तयेद्विश्ववित् सदा ॥१७१॥
अन्वयार्थ : वह जीवादिरूप वस्तु तदतत्स्वरूप अर्थात् नित्यानित्यादिस्वरूप को प्राप्त होकर विराम को नहीं प्राप्त होती है, इस प्रकार समस्त तत्त्व का जानकार विश्व की अनादिनिधनता का विचार करे ॥१७१॥
Meaning : A substance, at any time, exhibits contradictory attributes of affirmation (tat, vidhi – existence) as well as of negation (atat, niÈedha – non-existence), depending on the point-of-view. All substances, thus, are eternal. This way, the man, well-versed in the Scripture, should reflect on the world that is without a beginning and an end.

  भावार्थ 

भावार्थ :

विशेषार्थ- पूर्व श्लोक में यह निर्देश किया था कि साधु के लिये अपने चंचल मन को श्रुत के अभ्यासमें लगाना चाहिये। इस का स्पष्टीकरण करते हुए यहां यह बतलाया है कि आगम में वर्णित जीवजीवादि पदार्थों में से प्रत्येक विवक्षाभेद से भिन्न भिन्न स्वरूपवाला है । जैसे- एक ही आत्मा जहां द्रव्य की प्रधानता से नित्य है वहां वह पर्याय की प्रधानता से अनित्य भी है। कारण यह कि आत्मा का जो चैतन्य द्रव्य है उसका कभी नाश सम्भव नहीं है, वह उसकी समस्त पर्याय में विद्यमान रहता है। जैसे- सुवर्ण से उत्तरोत्तर उत्पन्न होने वाली कडा, कुण्डल एवं सांकल आदि पर्यायों में सुवर्णसामान्य विद्यमान रहता है। अतएव वह द्रव्यार्थिक नय की प्रधानता से नित्य कहा जाता है। परन्तु वही चूंकि पर्याय की अपेक्षा अनेक अवस्थाओं में भी परिणत होता है- एक रूप नहीं रहता, इसीलिये पर्यायार्थिक नय की अपेक्षा उक्त आत्मा को अनित्य भी कहा जाता है । लोकव्यवहार में भी कहा जाता है कि अमुक मनुष्य मर गया है, अमुक के यहां पुत्रजन्म हुआ है, आदि । यद्यपि नित्यत्व और अनित्यत्व ये दोनों ही धर्म परस्पर विरुद्ध अवश्य दिखते हैं तो भी विवक्षाभेद से उनके मानने में कोई विरोध नहीं आता । जैसे- एक ही देवदत्त नाम का व्यक्ति अपने पुत्र की अपेक्षा जिस प्रकार पिता कहा जाता है उसी प्रकार वह अपने पिता की अपेक्षा पुत्र भी कहा जाता है। इस प्रकार का व्यवहार लोक में स्पष्टतया देखा जाता है, इसमें किसी को भी विरोध प्रतीत नहीं होता। परन्तु हां, यदि कोई जिस पुत्र की अपेक्षा किसी को पिता कहता है उसी पुत्र की ही अपेक्षा से यदि उसे पुत्र भी कहता है तो उसका वैसा कहना निश्चित ही विरुद्ध होगा और इसीलिये वह निन्दा का पात्र होगा ही। इसी प्रकार जिस द्रव्य की अपेक्षा वस्तु को नित्य माना जाता है उसी द्रव्य की अपेक्षा यदि कोई उसे अनित्य समझ ले तो उसके समझने में अवश्य ही विरोध रहेगा। परन्तु एक ही वस्तु को द्रव्य की अपेक्षा नित्य और पर्याय की अपेक्षा अनित्य मानने में किसी प्रकार के भी विरोध की सम्भावना नहीं रहती । इसी प्रकार प्रत्येक वस्तु को अपेक्षाभेद से सत् और असत्, एक और अनेक तथा भिन्न और अभिन्न आदि स्वरूपों के मानने में किसी प्रकार का विरोध नहीं होता; बल्कि इसके विपरीत उसे दुराग्रहवश एक ही स्वरूप मानने में अवश्य विरोध होता है । इस प्रकार साधु को श्रुत के चिन्तन में- वस्तुस्वरूप के विचार में- अपने मन को लगाना चाहिये। ऐसा करने से वह साथ निठल्ले मन के द्वारा उत्पन्न होने वाली राग-द्वेषमय प्रवृत्ति से अवश्य ही रहित होगा॥१७१॥