
भावार्थ :
विशेषार्थ- जिस प्रकार पद्मरागादि मणि को अग्नि में रखने पर वह मल से रहित होकर अतिशय निर्मल हो जाता है और सदा वैसा ही रहता है उसी प्रकार श्रुतभावना का विचार करने पर भव्य जीव भी राग-द्वेषादिरूप मल से रहित होकर विशुद्ध होता हुआ मुक्त हो जाता है और सदा उसी अवस्था में प्रकाशमान रहता है। इसके विपरीत जिस प्रकार अग्नि के मध्य में स्थित अंगार यद्यपि उस समय अतिशय दैदीप्यमान होता है तो भी पीछे वह मलिन कोयला अथवा भस्म बन जाता है उसी प्रकार उक्त श्रुतभावना के विचार से अभव्य जीव भी यद्यपि उस समय ज्ञानादि के प्रभाव से प्रकाशमान होता है तो भी वह मिथ्याज्ञान से पदार्थों को जान करके मलिन तथा मिथ्यादर्शन व अनन्तानुबन्धी के प्रभाव में उनमें राग-द्वेषबुद्धि को प्राप्त होकर भस्म के समान पदार्थज्ञान से रहित हो जाता है । यहां शास्त्र में जो अग्नि का आरोप किया गया है वह इसलिये किया गया है कि जिस प्रकार अग्नि वस्तु को प्रकाशित करती है और इन्धन को जलाती भी है उसी प्रकार शास्त्र भी वस्तुस्वरूप को प्रकाशित करता है और कर्मरूप इन्धन को जलाता भी है । इस प्रकार उन दोनों में प्रकाशकत्व एवं दाहकत्वरूप समान धर्मों को देखकर ही वैसा आरोप किया गया है ॥१७६॥ |