+ ध्यान की प्रक्रिया -
मुहुः प्रसार्य संज्ञानं पश्यन् भावान् यथास्थितान् ।
प्रीत्यप्रीती निराकृत्य ध्यायेदध्यात्मविन्मुनिः ॥१७७॥
अन्वयार्थ : आत्मतत्त्व का जानकार मुनि बार बार सम्यग्ज्ञान को फैलाकर जैसा कि पदार्थों का स्वरूप है उसी रूप से उनको देखता हुआ राग और द्वेष को दूर करके ध्यान करे ॥१७७॥
Meaning : The ascetic who knows the nature of the soul-substance should meditate by spreading out, over and over again, his right knowledge (samyagjñāna), ascertaining the nature of the substances as these actually are, and vanquishing attachment (rāga) and aversion (dveÈa).

  भावार्थ 

भावार्थ :

विशेषार्थ- अभिप्राय यह है कि आत्महितैषी जीव को सबसे पहिले सम्यग्ज्ञान के द्वारा जीवाजीवादि पदार्थों के यथार्थ स्वरूप को जानने का प्रयत्न करना चाहिये। ऐसा होने पर आत्मस्वरूप की जानकारी हो जाने से उसकी उस ओर रुचि होगी। इसके अतिरिक्त बाह्य पर पदार्थों में इष्टानिष्टबुद्धि के न रहने से रागद्वेषरूप प्रवृत्ति भी नष्ट हो जावेगी जिससे कि वह एकाग्र चित्त होकर ध्यान में लीन हो सकेगा। कारण यह कि राग-द्वेषरूप प्रवृत्ति के होते हुए उस ध्यान की सम्भावना नहीं है॥१७७॥