
भावार्थ :
विशेषार्थ- अभिप्राय यह है कि जो प्राणी को सुख देता है वह मित्र माना जाता है और जो दुख देता है वह शत्रु माना जाता है। यह लोकप्रसिद्ध बात है । अब यदि विचार करें तो प्राणी जिन पिता, पुत्र एवं बन्धु आदि को मित्र के समान सुखदायक मानता है वे भी सदा सुख देने वाले नहीं होते । कारण कि जब उनका मरण होता है तब उनके वियोग में वह अत्यधिक दुखी होता है । ऐसी अवस्था में वे मित्र कैसे रहे- दुखदायक होने से वे भी शत्रु ही हुए। फिर उनके निमित्त जो यह प्राणी शोकसंतप्त होता है वह अपनी अज्ञानता के कारण ही होता है । अतएव अज्ञानता के कारणभूत उस मोह को ही नष्ट करना चाहिये ॥१८४॥ |