+ शोक का कारण और फल तथा उसके अभाव की प्रेरणा -
हानेः शोकस्ततो दुःखं लाभाद्रागस्ततः सुखम् ।
तेनः हानावशोकः सन् सुखी स्यात्सर्वदा सुधीः ॥१८६॥
अन्वयार्थ : इष्ट वस्तु की हानि से शोक और फिर उससे दुख होता है तथा उसके लाभ से राग और फिर उससे सुख होता है । इसीलिये बुद्धिमान् मनुष्य को इष्ट की हानि में शोक से रहित होकर सदा सुखी रहना चाहिये ॥१८६॥
Meaning : The loss of something desirable causes anguish and, thereafter, misery. Its gain causes contentment and, thereafter, happiness. The wise man, therefore, not getting anguished by the loss of something desirable, should remain ever happy.

  भावार्थ 

भावार्थ :

विशेषार्थ--- दुख का कारण शोक और उस शोक का भी कारण इष्टसामग्री का अभाव है। इसी प्रकार सुख का कारण राग और उस राग का भी कारण उक्त इष्टसामग्री की प्राप्ति है। परन्तु यथार्थ में यदि विचार करें तो कोई भी बाह्य पदार्थ न तो इष्ट है और न अनिष्ट भी- यह तो अपनी रुचि के अनुसार प्राणी की कल्पना मात्र है। कहा भी है-

अनादौ सति संसारे केन कस्य न बन्धुता।

सर्वथा शत्रुभावश्च सर्वमेतद्धि कल्पना ॥

अर्थात् संसार अनादि है । उसमें जो किसी समय बन्धु रहा है वहीं अन्य समय में शत्रु भी रह सकता है। इससे यही निश्चित होता है कि इस अनादि संसार में न तो वास्तव में कोई मित्र है और न कोई शत्रु भी। यह सब प्राणी की कल्पना मात्र है ॥ क्ष. चू . 1-61 ॥

इसीलिये विवेकी जन ममत्वबुद्धि से रहित होकर इष्ट की हानि में कभी शोक नहीं करते । इससे वे सदा ही सुखी रहते हैं ॥१८६॥