+ विषयाभिलाषा से अनर्थ -
दृष्ट्वा जनं व्रजसि किं विषयाभिलाषं
स्वल्पोऽप्यसौ तव महज्जनयत्यनर्थम् ।
स्तेहाद्युपक्रमजुषो हि यथातुरस्य
दोषो निषिद्धचरणं न तथेतरस्य ॥१९१॥
अन्वयार्थ : हे भव्य ! तू विषयी जन को देखकर स्वयं विषय की अभिलाषा को क्यों प्राप्त होता है ? कारण कि थोडी-सी भी वह विषयाभिलाषा तेरे अधिक अनर्थ (अहित) को उत्पन्न करती है । ठीक ही है- जिस प्रकार कि तेल आदि स्निग्ध पदार्थों का सेवन करने वाले रोगी मनुष्य के लिये दोष जनक होने से उनका सेवन करना निषिद्ध है उस प्रकार वह दूसरे के लिये नहीं है ॥१९१॥
Meaning : O worthy soul! Why do you long for sense-pleasures as you see the sensuous men? Even a little longing for sense-pleasures is extremely harmful for you. It is right; consumption of oily things, like ghee, being harmful, is proscribed for the man under treatment, but it is not so for the others.

  भावार्थ 

भावार्थ :

विशेषार्थ- जो विषयों से विरक्त होकर तप में प्रवृत्त हुआ है वह यदि स्त्रीजन आदि को देखकर फिर से विषय की इच्छा करता है तो इससे उसका बहुत अधिक अहित होनेवाला है । जैसे कि कोई रोगी यदि तेल-घी आदि अपथ्य वस्तुओं का सेवन करता है तो इससे उसका रोग अधिक ही बढता है और तब वह इससे भी अधिक कष्ट में पडता है । परन्तु जो स्वस्थ है उसके लिये उन घी-तेल आदि पदार्थों का सेवन निषिद्ध नहीं है । कारण कि वह उनको पचा सकता है । इसी प्रकार यदि कोई गृहस्थ स्त्री आदि को देखकर विषयसुख की इच्छा करता है तो इससे उसका कुछ विशेष अहित होने वाला नहीं है । कारण यह कि वह गृहस्थ अवस्था में स्थित है- अभी वह उनका परित्याग नहीं कर सका है। परन्तु जो साधु अवस्था में स्थित है और जो उनका परित्याग कर चुका है वह यदि फिर से उनमें अनुरक्त होता है तो यह उसके लिये लज्जाजनक तो है ही, साथ ही इससे उसकी परलोक में भी बहुत अधिक हानि होनेवाली है ॥१९१॥