
तथा श्रुतमधीष्व शश्वदिह लोकपंक्ति विना
शरीरमपि शोषय प्रथितकायसंक्लेशनैः ।
कषायविषयद्विषो विजयसे यथा दुर्जयान्
शमं हि फलमामनन्ति मुनयस्तपःशास्त्रयोः ॥१९०॥
अन्वयार्थ : हे भव्यजीव ! तू लोकपंक्तिके विना अर्थात् प्रतिष्ठा आदि की अपेक्षा न करके निष्कपटरूप से यहां इस प्रकार से निरन्तर शास्त्र का अध्ययन कर तथा प्रसिद्ध कायक्लेशादि तपों के द्वारा शरीर को भी इस प्रकार से सुखा कि जिससे तू दुर्जय कषाय एवं विषयरूप शत्रुओं को जीत सके । कारण कि मुनिजन राग-द्वेषादि की शान्ति को ही तप और शास्त्राभ्यास का फल बतलाते हैं ॥१९०॥
Meaning : O worthy soul! In this world, you study the Scripture incessantly, without desire for renown and without pretense. Also, dry up your body through well-known austerities like endurance of bodily discomfiture so as to vanquish intractable enemies of passions and sense-pleasures . It is so because learned ascetics consider the suppression of attachment and aversion the only fruit of austerities and the study of the Scripture.
भावार्थ
भावार्थ :
विशेषार्थ- अभिप्राय इतना ही है कि प्राप्त हुए विशिष्ट आगमज्ञान एवं तप के निमित्त से किसी प्रकार के अभिमान आदि को न प्राप्त होकर जो राग-द्वेष एवं विषयवांछा आदि परमार्थ सुख की प्राप्ति में बाधक हैं उन्हें ही नष्ट करना चाहिये। यही उस आगमज्ञान एवं तप का फल है ॥१९०॥
|