
भावार्थ :
विशेषार्थ- अभिप्राय यह है कि यह प्राणी अनादि काल से बहिरात्मा- आत्म-अनात्म के विवेक से रहित- रहा है। इसीलिये उस समय उसका समस्त आचरण आत्मस्वरूप का घातक- हेय-उपादेय के विचार से रहित-होकर राग-द्वेषादि से परिपूर्ण रहा है। जब इसको सम्यग्दर्शन प्राप्त हो जाता है तब उसके आत्म पर का विवेक उत्पन्न हो जाता है। इसीलिये उसके आचरण में भी परिवर्तन हो जाता है। तब वह ऐसी ही क्रियाओं को करता है जिनसे कि आत्मा का हित होने वाला है । यद्यपि चारित्रमोहनीय का उदय विद्यमान रहने से वह जब तब विषयोपभोग में भी प्रवृत्त होता है, फिर भी वह उसे हेय ही समझता है- उपादेय नहीं समझता और न आसक्ति के साथ भी वह उन विषयों में प्रवृत्त होता है । तब उसकी अन्तरात्मा संज्ञा हो जाती है यही अन्तरात्मा जब संसार के कारणभूत विषयों से पूर्णतया विरक्त होकर तप-संयम को स्वीकार करता है तब वह उनके द्वारा संवर और निर्जरा को प्राप्त होता हुआ चार घातिया कर्मों का क्षय करके आर्हन्त्य अवस्था को प्राप्त करता है । उस समय वह सकल परमात्मा कहा जाता है । तत्पश्चात् वह शेष चार घातिया कर्मों को भी नष्ट करके निकल परमात्मा (सिद्ध) हो जाता है। इस समय जो निराकुल सुख उसे प्राप्त होता है वह आत्मा के द्वारा आत्मा में ही उत्पन्न किया गया आत्मीक सुख है जो शाश्वतिक (अविनश्वर) है। इस प्रकार यहां यह उपदेश दिया गया है कि हे आत्मन् ! तू अनादि काल से बहिरात्मा (मिथ्यादृष्टि) रहा है। उस समय तूने न्याय-अन्याय का विचार न करके जो मनमाना आचरण किया है उसके कारण अनेक दुःखों को सहा है। इसलिये अब तू सम्यग्दर्शन को प्राप्त करके अन्तरात्मा बन जा और जो व्रत-संयम आदि आत्मा के हितकारक हैं उनमें प्रवृत्त होकर परमात्मा बनने का प्रयत्न कर । ऐसा करने पर ही तुझे वास्तविक सुख प्राप्त हो सकेगा ॥१९३॥ |