+ आत्म-हितकारी आचरण की प्रेरणा -
आत्मन्नात्मविलोपनात्मचरितैरासीर्दुरात्मा चिरं
स्वात्मा स्याः सकलात्मनीनचरितैरात्मीकृतैरात्मनः ।
आत्मेत्यां परमात्मतां प्रतिपतन् प्रत्यात्मविद्यात्मकः
स्वात्मोत्थात्मसुखो निषीदसि लसन्नध्यात्ममध्यात्मना ॥१९३॥
अन्वयार्थ : हे आत्मन्! तू आत्मस्वरूप को नष्ट करने वाले अपने आचरणों के द्वारा चिर काल से दुरात्मा अर्थात् बहिरात्मा रहा है अब तू आत्मा का हित करने वाले ऐसे अपने समस्त आचरणों को अपनाकर उनके द्वारा उत्तम आत्मा अर्थात् अन्तरात्मा हो जा। इससे तू अपने आपके द्वारा प्राप्त करने योग्य परमात्मा अवस्था को प्राप्त हो करके केवलज्ञानस्वरूप से संयुक्त, विषयादि की अपेक्षा न करके केवल अपनी आत्मा के आश्रय से ही उत्पन्न हुए आत्मीक सुख का अनुभव करने वाला और अपनी आत्मा द्वारा प्राप्त किये गये निज स्वरूप से सुशोभित होकर सुखी हो सकता है ॥१९३॥
Meaning : O soul! For very long, by adopting conduct that destroys the soul-nature, you have lived as a vicious-soul (an extroverted-soul – bahirātmā). Now, by adopting such conduct that benefits the soul you become a righteoussoul (an introverted-soul – antarātmā). You can then reach the stage of the pure-soul (paramātmā), which can only be attained through self-effort. In this stage, the soul becomes of the nature of infinite-knowledge (omniscience), and enjoyer of the soul-bliss that is independent of all external sense-objects. Such is the resplendent own-nature of the soul, realized by the soul itself.

  भावार्थ 

भावार्थ :

विशेषार्थ- अभिप्राय यह है कि यह प्राणी अनादि काल से बहिरात्मा- आत्म-अनात्म के विवेक से रहित- रहा है। इसीलिये उस समय उसका समस्त आचरण आत्मस्वरूप का घातक- हेय-उपादेय के विचार से रहित-होकर राग-द्वेषादि से परिपूर्ण रहा है। जब इसको सम्यग्दर्शन प्राप्त हो जाता है तब उसके आत्म पर का विवेक उत्पन्न हो जाता है। इसीलिये उसके आचरण में भी परिवर्तन हो जाता है। तब वह ऐसी ही क्रियाओं को करता है जिनसे कि आत्मा का हित होने वाला है । यद्यपि चारित्रमोहनीय का उदय विद्यमान रहने से वह जब तब विषयोपभोग में भी प्रवृत्त होता है, फिर भी वह उसे हेय ही समझता है- उपादेय नहीं समझता और न आसक्ति के साथ भी वह उन विषयों में प्रवृत्त होता है । तब उसकी अन्तरात्मा संज्ञा हो जाती है यही अन्तरात्मा जब संसार के कारणभूत विषयों से पूर्णतया विरक्त होकर तप-संयम को स्वीकार करता है तब वह उनके द्वारा संवर और निर्जरा को प्राप्त होता हुआ चार घातिया कर्मों का क्षय करके आर्हन्त्य अवस्था को प्राप्त करता है । उस समय वह सकल परमात्मा कहा जाता है । तत्पश्चात् वह शेष चार घातिया कर्मों को भी नष्ट करके निकल परमात्मा (सिद्ध) हो जाता है। इस समय जो निराकुल सुख उसे प्राप्त होता है वह आत्मा के द्वारा आत्मा में ही उत्पन्न किया गया आत्मीक सुख है जो शाश्वतिक (अविनश्वर) है। इस प्रकार यहां यह उपदेश दिया गया है कि हे आत्मन् ! तू अनादि काल से बहिरात्मा (मिथ्यादृष्टि) रहा है। उस समय तूने न्याय-अन्याय का विचार न करके जो मनमाना आचरण किया है उसके कारण अनेक दुःखों को सहा है। इसलिये अब तू सम्यग्दर्शन को प्राप्त करके अन्तरात्मा बन जा और जो व्रत-संयम आदि आत्मा के हितकारक हैं उनमें प्रवृत्त होकर परमात्मा बनने का प्रयत्न कर । ऐसा करने पर ही तुझे वास्तविक सुख प्राप्त हो सकेगा ॥१९३॥