+ बाह्य तप करने की प्रेरणा -
अनेन सुचिरं पुरा त्वमिह दासवद्वाहित
स्ततोऽनशनसाभिभक्तरसवर्जनादिक्रमैः।
क्रमेण विलयावधि स्थिरतपोविशेषैरिदं
कदर्थय शरीरकं रिपुभिवाद्य हस्तागतम् ॥१९४॥
अन्वयार्थ : पूर्व समय में इस शरीर ने तुझे संसार में बहुत काल तक दास के समान घुमाया है। इसलिये तू आज इस घृणित शरीर को हाथ में आये हुए शत्रु के समान जबतक कि वह नष्ट नहीं होता है तबतक अनशन, ऊनोदर एवं रसपरित्याग आदिरूप विशेष तपों के द्वारा क्रम से कृश कर ॥१९४॥
Meaning : Till now, for a very long time, your body has driven you ike a slave in this world. Therefore, now you emaciate this despicable body, like an enemy that has fallen into your hands, gradually, till it persists, through special austerities (tapa) like fasting, reduced diet, and giving up stimulating and delicious food.

  भावार्थ 

भावार्थ :

विशेषार्थ- लोक में जो जिसका अहित करता है वह उसका शत्रु माना जाता है। इस स्वरूप से तो यह शरीर ही अपना वास्तविक शत्रु सिद्ध होता है । कारण यह कि शत्रु तो कभी किसी विशेष समय में ही प्राणी को कष्ट देता है, परन्तु यह शरीर तो जीव को अनादि काल से अनेक योनियों में परिभ्रमण कराता हुआ कष्ट देता रहा है। अतएव जिस प्रकार वह लोकप्रसिद्ध शत्रु जब मनुष्य के हाथ में आ जाता है तब वह उसे पूर्ण भोजन आदि न दे करके अथवा अनिष्ट भोजन आदिके द्वारा संतप्त करके नष्ट करनेका प्रयत्न करता है, उसी प्रकार तू भी इस शरीरको उस शत्रुसे भी भयानक समझकर उसे अनशनादि तपों के द्वारा क्षीण करनेका प्रयत्न कर। इस प्रकारसे तू उसके नष्ट होनेके पूर्वमें अपने प्रयोजन (मोक्षप्राप्ति) को सिद्ध कर सकेगा। और यदि तूने ऐसा न किया तथा वह बीच में ही नष्ट हो गया तो वह तुझे फिर भी अनेक योनियों में परिभ्रमण करा कर दुखी करेगा। अभिप्राय यह है कि जब यह दुर्लभ मनुष्यशरीर प्राप्त हो गया है तो इसे यों ही नष्ट नहीं कर देना चाहिये, किन्तु उससे जो अपना अभीष्ट सिद्ध हो सकता है- संयमादि के द्वारा मुक्तिलाभ हो सकता है- उसे अवश्य सिद्ध कर लेना चाहिये ॥१९४॥