+ इससे तो गृहस्थ अवस्था ही श्रेष्ठ है -
वरं गार्हस्थ्यमेवाद्य तपसो भाविजन्मनः।
श्वः स्त्रीकटाक्षलुण्टाकलोप्यवैराग्यसंपदः ॥१९८॥
अन्वयार्थ : आज जो तप ग्रहण किया गया है वह यदि कल स्त्रियों के कटाक्षोंरूप लुटेरों के द्वारा वैराग्यरूप सम्पत्ति से रहित किया जाता है तो जन्मपरम्परा (संसार) को बढ़ानेवाले उस तप की अपेक्षा तो कहीं गृहस्थ जीवन ही श्रेष्ठ था ॥१९८॥
Meaning : If today’s austerities are to be robbed tomorrow by seductive half-glances of women, the wealth of asceticism is lost. The life of the householder is better than such asceticism that surely is the cause of future births.

  भावार्थ 

भावार्थ :

विशेषार्थ- अभिप्राय यह है कि जिसने पूर्व में विषयों से विरक्त होकर समस्त परिग्रह के परित्यागपूर्वक तप को स्वीकार किया है वह यदि पीछे स्त्रियों के कटाक्षपात एवं हाव-भावादि से पीडित होकर उस वैराग्यरूप सम्पत्ति को नष्ट करता है और अनुराग को प्राप्त होता है तो वह अतिशय निन्दा का पात्र बनता है। इससे तो कहीं वह गृहस्थ ही बना रहता तो अच्छा था। कारण कि इससे उसकी संसारपरम्परा तो न बढती जो कि गृहीत तप को छोड देने से अवश्य ही बढनेवाली है ॥१९८॥