
न कोऽप्यन्योऽन्येन व्रजति समवायं गुणवता
गुणी केनापि त्वं समुपगतवान् रूपिभिरमा ।
न ते रूपं ते यानुपव्रजसि तेषां गतमतिः
ततश्च्द्येद्यो भेद्यो भवसि बहुदुःखो भववने ॥२००॥
अन्वयार्थ : कोई भी अन्य गुणवान् किसी अन्य गुणवान् के साथ अभेदस्वरूपता को नहीं प्राप्त होता है । परन्तु तू किसी कर्म के वश उन रूपी शरीरादि के साथ अभेद को प्राप्त हो रहा है । जिन शरीरादि को तू अभिन्न मानता है वे वास्तव में तुझ स्वरूप नहीं हैं । इसीलिये तू उनमें ममत्वबुद्धि को प्राप्त होकर आसक्त रहने से इस संसाररूप वन में छेदा भेदा जाकर बहुत दुखी होता है ॥२००॥
Meaning : The possessor-of-attribute does not become one with another possessor-of-attribute. But you, due to karma, are getting one with this corporeal body. Certainly, the body, etc., that you consider one with you, are not your nature. Due to this infatuation for the body you are facing excessive miseries, being cut and pierced, in this forest of worldly existence.
भावार्थ
भावार्थ :
विशेषार्थ- लोक में जो भी घटपटादि भिन्न भिन्न वस्तुएं देखने में आती हैं वे मूर्तिकरूप से समान होकर भी एक दूसरे के साथ अभेदरूपता को प्राप्त नहीं होती हैं। परन्तु यह अज्ञानी प्राणी स्वयं अमूर्तिक होकर भी अपने से भिन्न स्त्री-पुत्र एवं धन सम्पत्ति आदि मूर्तिक पदार्थों के अभेद को प्राप्त होता है- उन्हें अपना मानता है। यह उसके कर्मोदय का प्रभाव समझना चाहिये। जब जीव स्वयं रूप-रसादि से रहित (अमूर्तिक) एवं चैतन्यरूप है तब उसकी एकता रूपादिसहित (मूर्तिक) एवं जडस्वरूप उन स्त्री-पुत्रादि के साथ भला कैसे हो सकती है ? नहीं हो सकती है। फिर जो यह अपनी अज्ञानता से उक्त भिन्न पदार्थों को अपना समझकर उनके साथ अनुराग को प्राप्त होता है उसका फल यह होगा कि उसे नरक और तिर्यंच गतियों में जाकर छेदने भेदने आदि के दुस्सह दुःखों को सहना पडेगा॥२००॥
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