
अपि रोगादिभिर्वृद्धर्न यतिः खेदमृच्छति ।
उडुपस्थस्य कः क्षोभः प्रवृद्धेऽपि नदीजले ॥२०४॥
अन्वयार्थ : साधु अतिशय वृद्धि को प्राप्त हुए भी रोगादिकों के द्वारा खेद को नहीं प्राप्त होता है। ठीक है- नाव में स्थित प्राणी को नदी के जल में अधिक वृद्धि होने पर भी कौन-सा भय होता है ? अर्थात् उसे किसी प्रकार का भी भय नहीं होता है ॥२०४॥
Meaning : The ascetic is not distressed even by increased bodily afflictions, like disease. Indeed; what fear is there for the man on board a boat on rise of the water-level of the river?
भावार्थ
भावार्थ :
विशेषार्थ- जिस प्रकार स्थिर नाव में बैठे हुए मनुष्य को नदी में जल के बढ जाने पर भी किसी प्रकार का खेद नहीं होता है। कारण कि वह यह समझता है कि नदी के जल में वृद्धि होने पर भी मैं इस नाव के सहारे से उसके पार जा पहुँचूंगा । ठीक उसी प्रकार से जिसको शरीर का स्वभाव ज्ञात हो चुका है कि वह अपवित्र, रोगादि का घर तथा नश्वर है; वह विवेकी साधु उक्त शरीर के कठिन रोग से व्याप्त हो जाने पर भी किसी प्रकार से खेद को नहीं प्राप्त होता है ॥२०४॥
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