+ सच्चे ज्ञान और सच्चे साहस का स्वरूप -
हा हतोऽसि तरां जन्तो येनास्मिंस्तव सांप्रतम् ।
ज्ञानं कायाशुचिज्ञानं तत्त्यागः किल साहसम् ॥२०३॥
अन्वयार्थ : हे प्राणी ! तू चूंकि इस शरीर के विषय में अतिशय दुखी हुआ है इसीलिये उस शरीर के सम्बन्ध में जो तुझे इस समय अपवित्रता का ज्ञान हुआ है वह योग्य है। अब उस शरीर का परित्याग करना,यह तेरा अतिशय साहस होगा॥२०३॥
Meaning : O man! You have suffered a lot due to your association with the body. It is right that now you have realized how impure the body is. To renounce this body will be your real valour

  भावार्थ 

भावार्थ :

विशेषार्थ- अभिप्राय यह है कि जो शरीर अत्यन्त अपवित्र है उसे पवित्र मानकर यह अज्ञानी प्राणी अब तक दुखी रहा है । इसलिये उसका कर्तव्य है कि उक्त शरीर के विषय में प्रथम तो वह 'यह अपवित्र है' ऐसे सम्यग्ज्ञान को प्राप्त करे और तत्पश्चात् उसे साहसपूर्वक छोडने का प्रयत्न करे । इस प्रकार से वह शरीर के निमित्त से जो दुख सह रहा था उससे छुटकारा पा जावेगा॥२०३॥