+ रोग मिटने से सुख मानना अज्ञान है -
शिरःस्थं भारमुत्तार्य स्कन्धे कृत्वा सुयत्नतः ।
शरीरस्थेन भारेण अज्ञानी मन्यते सुखम् ॥२०६॥
अन्वयार्थ : शिर के ऊपर स्थित भार को उतारकर और उसे प्रयत्नपूर्वक कन्धे के ऊपर करके अज्ञानी प्राणी उस शरीरस्थ भार से सुख की कल्पना करता है ॥२०६॥
Meaning : The ignorant man imagines a sense of relief from the load he is carrying on his head by removing it from the head and, with great difficulty, shifting it on to his shoulder. (He is still carrying the load!)

  भावार्थ 

भावार्थ :

विशेषार्थ- जिस प्रकार कोई मनुष्य शिर के ऊपर रखे हुए बोझ से पीडित होता हुआ उसे प्रयत्नपूर्वक शिर से उतारकर कन्धे के ऊपर रखता है और उस अवस्था में अपने को सुखी मानता है । परन्तु वह अज्ञानी प्राणी यह नहीं सोचता कि वह बोझा तो अभी भी शरीर के ही ऊपर स्थित है। भेद इतना ही हुआ है कि उसे शिर से उतारकर कन्धे पर रख लिया है और ऐसा करने से उसके कष्ट में कुछ थोडी-सी कमी अवश्य हुई है । परन्तु वास्तव में इससे उसे सुख का लेश भी नहीं प्राप्त हुआ है। ठीक इसी प्रकार से यह अविवेकी प्राणी भी शरीर में उत्पन्न हुए रोग को यथायोग्य औषधि आदि से नष्ट करके अपने को सुखी मानता है। परन्तु वह यह नहीं विचार करता कि रोगों का घर जो शरीर है उसका संयोग तो अभी भी बना है, ऐसी अवस्था में सुख भला कैसे प्राप्त हो सकता है ? सच्चा सुख तो तब ही प्राप्त हो सकेगा जब कि उसका शरीर के साथ सदा के लिये सम्बन्ध छूट जायगा । उसकी उपर्युक्त सुख की कल्पना तो ऐसी है जैसे कि शिर से बोझ को उतारकर उसे कन्धे के ऊपर रखनेवाला मनुष्य सुख की कल्पना करता है ॥२०६॥