
वसति भुवि समस्तं सापि संधारितान्यैः
उदरमुपनिविष्टा सा च ते वा परस्य ।
तदपि किल परेषां ज्ञानकोणे निलीनं
वहति कथमिहान्यो गर्वमात्माधिकेषु ॥२१९॥
अन्वयार्थ : जिस पृथिवी के ऊपर सब ही पदार्थ रहते हैं वह पृथिवी भी दूसरों के द्वारा- घनोदधि, घन और तनु वातवलयों के द्वारा-- धारण की गई है । वह पृथिवी और वे तीनों ही वातवलय भी आकाश के मध्य में प्रविष्ट हैं, और वह आकाश भी केवलियों के ज्ञान के एक कोने में विलीन है। ऐसी अवस्था में यहां दूसरा अपने से अधिक गुणवालों के विषय में कैसे गर्व धारण करता है ? ॥२१९॥
Meaning : The earth that supports all objects is supported by others *. These, the earth and the sheaths, are stationed in the middle of the space . The space, too, is obscure in one corner of the knowledge of the Omniscient. In such a situation, when someone else with greater qualities exists, how can one entertain the sense of pride?
भावार्थ
भावार्थ :
विशेषार्थ- व्यक्ति जिस विषय में अभिमान करता है उस विषय में उसका अभिमान तभी उचित कहा जा सकता है जब कि वह प्रकृत विषय में परिपूर्णता को प्राप्त हो। परन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि लोक में प्रत्येक विषय में एक से दूसरा और दूसरे से तीसरा इस क्रम से अधिकाधिक पाया जाता है । जैसे पृथिवी महाप्रमाणवाली है, उसमें जगत की सब ही वस्तुएं समायी हुई हैं । परन्तु वह विशाल पृथिवी भी वातवलयों के आश्रित है। उस पृथिवी और उन वातवलयों से भी महान् आकाश है जो उन सबको भी अपने भीतर धारण करता है । तथा इस आकाश से भी महान् प्रमाणवाला सर्वज्ञ का ज्ञान है जो उस अनन्त आकाश को भी अपने विषय स्वरूप से ग्रहण करता है। इस प्रकार सर्वत्र ही जब उत्कर्ष की तरतमता पायी जाती है तब कोई भी किसी विषय में पूर्णता का अभिमान नहीं कर सकता है ॥२१९॥
|