
भावार्थ :
विशेषार्थ- मायाव्यवहार के कारण प्राणियों को किस प्रकार का दुख सहना पडता है यह बतलाते हुए यहां मरीचि, युधिष्ठिर और कृष्ण के उदाहरण दिये गये हैं । इनमें इन्हीं गुणभद्राचार्य के द्वारा विरचित उत्तरपुराण में (देखिए पर्व 68) मरीचि का वह कथानक इस प्रकार पाया जाता है- अयोध्यापुरी में महाराज दशरथ राजा राज्य करते थे। किसी समय अवसर पाकर रामचन्द्र और लक्ष्मण ने प्रार्थना की कि वाराणसी पुरी पूर्व में हमारे आधीन रही है । इस समय उसका कोई शासक नहीं है। अतएव यदि आप आज्ञा दे तो हम दोनों उसे वैभव से परिपूर्ण कर दें। इस प्रकार उनके अतिशय आग्रह को देखकर दशरथ राजा ने कष्टपूर्वक उन्हें वाराणसी जाने की आज्ञा दे दी। वाराणसी जाते समय दशरथ ने रामचन्द्र को राजपद और लक्ष्मण को युवराजपद प्रदान किया। वे दोनों वहां जाकर न्यायपूर्वक प्रजा का पालन करते हुए उसके स्नेहभाजन बन गये । उधर लंका में प्रतापी रावण राज्य कर रहा था । उसे तीन खण्डों के अधिपति होने का बडा अभिमान था। उसके पास एक दिन नारदजी जा पहुंचे। रावण द्वारा आगमन का कारण पूछने पर वे बोले कि मैं आज वाराणसी से आ रहा हूं। वहां दशरथ राजा का पुत्र रामचन्द्र राज्य करता है। उसे मिथिला के स्वामी राजा जनक ने यज्ञ के बहाने वहां बुलाकर अपनी रूपवती सौभाग्यशालिनी कन्या दी है। वह आपके योग्य थी। राजा जनक ने आप जैसे तीन खण्डों के अधिपति के होते हुए भी रामचन्द्र को कन्या देकर आपका अपमान किया है । यह मुझे सहन नहीं हुआ। इसीलिये स्नेहवश इधर चला आया। यह सुनकर रावण काम से संतप्त हो उठा। तब उसने अपने मारीच नामक मंत्री को बुलाकर उससे कहा कि दशरथ राजा के पुत्र राम और लक्ष्मण बहुत अभिमानी हो गये हैं, वे मेरे पद को प्राप्त करना चाहते हैं । अतएव उन दोनों को मारकर रामचन्द्र की पत्नी सीता के हरण का कोई उपाय सोचो। इसपर मारीच ने रावण को बहुत कुछ समझाया। पर जब वह न माना तो सीता की इच्छा जानने के लिये उसके पास सूर्पणखा को भेजा गया। उस समय बसन्त ऋतु का समय होने से रामचन्द्र सीता के साथ चित्रकूट नाम के उद्यान में जाकर क्रीडा कर रहे थे। वहां जब वह सूर्पणखा स्त्री का रूप धारण कर सीता के पास पहुंची तब अन्य रानियां उसकी हंसी करने लगी। यह देखकर वह उनसे बोली कि आप सब बहुत सौभाग्यशालिनी हैं । आप लोगों ने पूर्व में कौन-सा पुण्यकार्य किया है, उसे मुझे बतलाइये । मैं भी तदनुसार अनुष्ठान करके इस राजा की पत्नी होना चाहती हूं। यह सुनकर स्त्री-पर्याय की निन्दा करते हुए सीता ने जो उसे उपदेश दिया उससे हतोत्साह होकर वह वापिस चली गई । उसे निश्चय हो गया कि कदाचित् सुमेरु विचलित हो सकता है, पर सीता का मन विचलित नहीं हो सकता है । सूर्पणखा से यह समाचार जानकर रावण उसके ऊपर क्रोधित होता हुआ, मारीच के साथ पुष्पक विमान पर आरूढ हुआ और उधर चल दिया। इस प्रकार चित्रकूट उद्यान में जाकर उसने मारीच को मणिमय सुन्दर हरिण बनकर सीता के सामने से जाने की आज्ञा दी। तदनुसार उसके सीता के सामने से निकलने पर उसे देखकर सीता की उत्सुकता बढ गई । उसकी उत्सुकता को देखकर रामचन्द्र उसे पकडने के लिये उसके पीछे चल पडे । इस प्रकार बहुत दूर जाने पर वह कपटी हरिण आकाश में उडकर चला गया । उधर रावण रामचन्द्र के वेष में सीता के पास पहुंचा और बोला कि हे प्रिये ! मैंने उस हरिण को पकड़ कर भेज दिया है। अब सन्ध्या हो गई है, इसलिये पालकी में सवार होकर नगर को वापिस चलें । यह कहते हुए उसने माया से पुष्पक विमान को पालकी के रूप में परिणत कर दिया और अपने आपको इस प्रकार दिखलाया जैसे रामचन्द्र घोडे पर चढकर पृथिवी पर चल रहे हों। इस प्रकार भोली सीता अज्ञानता से उस पर चढ गई और तब रावण उसे लंका ले गया। इस प्रकार सीता के अपहरण का कारण मारीच का वह कपटपूर्ण व्यवहार ही था जिसके कारण पृथिवी पर उसका अपयश फैला। 'अश्वत्थामा हतः' इस वाक्य का उच्चारण करने वाले युधिष्ठिर का वह वृत्तान्त महाभारत (द्रोण पर्व अध्याय 190-92) में इस प्रकार पाया जाता है- महाभारत युद्ध में जब पाण्डव द्रोणाचार्य के बाणों से बहुत त्रस्त हो गये थे और उन्हें जय की आशा नहीं रही थी तब उन्हें पीडित देखकर कृष्ण अर्जुन से बोले कि द्रोणाचार्य को संग्राम में इन्द्र के साथ देव भी नहीं जीत सकते हैं। उन्हें युद्ध में मनुष्य तब ही जीत सकते जब कि वे शस्त्रसन्यास ले लें। इसके लिये हे पाण्डवो ! धर्म को छोडकर कोई उपाय करना चाहिये । मेरी समझ से अश्वत्थामा के मर जानेपर वे युद्ध न करेंगे और इस प्रकार से तुम सबकी रक्षा हो सकती है । इसके लिये कोई मनुष्य युद्ध में उनसे अश्वत्थामा के मरने का वृत्तान्त कहे । यह कृष्ण की सम्मति अर्जुन को नहीं रुची, युधिष्ठिर को वह कष्ट के साथ रुची, परंतु अन्य सबको वह खूब रुची । तब भीम ने मालव इन्द्रवर्मा के अश्वत्थामा नामक भयंकर हाथी को अपनी गदा के प्रहार से मार डाला और युद्ध में द्रोणाचार्य के सामने जाकर अश्वत्थामा हतः- अश्वत्थामा मर गया' इस वाक्य का जोर से उच्चारण किया। उस समय चूंकि अश्वत्थामा नाम का हाथी मर ही गया था, अतः ऐसा मन में सोचकर भीम ने यह मिथ्या भाषण किया। इस वाक्य को सुनकर यद्यपि द्रोणाचार्य को खेद तो बहुत हुआ फिर भी अपने पुत्र के पराक्रम को देखते हुए उस वाक्य के विषय में संदिग्ध होकर उन्होंने धैर्य को नहीं छोडा। उस समय उन्होंने धृष्टद्युम्न के ऊपर तीक्ष्ण बाणों की वर्षा की । यह देखकर बीस हजार पंचालों ने युद्ध में उन्हें बाणों से ऐसा व्याप्त कर दिया जैसे कि वर्षा ऋतु में मेघों से सूर्य व्याप्त हो जाता है । तब द्रोणाचार्य ने क्रोधित होकर उन सबके वध के लिये ब्रह्म अस्त्र उत्पन्न किया और उन हजारों सुभटों के साथ दस हजार हाथियों और इतने ही घोडों को मारकर उनके शवों से पृथिवी को व्याप्त कर दिया। इस प्रकार द्रोणाचार्य को क्षत्रियों से रहित पृथिवी को करते हुए देखकर अग्नि को आगे करते हुए विश्वमित्र, जमदग्नि, भरद्वाज, गौतम,वसिष्ठ कश्यप और अत्रि आदि ऋषि उन्हें ब्रह्मलोक में ले जाने की इच्छा से वहां शीघ्र ही आ पहुंचे। वे सब उनसे बोले कि हे द्रोण ! तुमने अधर्म से युद्ध किया है, अब तुम्हारी मृत्यु निकट है, अतएव तुम युद्ध में शस्त्र को छोडकर यहां स्थित हम लोगों की ओर देखो। अब इसके पश्चात् तुम्हें ऐसा अतिशय क्रूर कार्य करना योग्य नहीं है । तुम वेदवेदांग के वेत्ता और सत्य धर्म में लवलीन हो । इसलिये और विशेषकर ब्राह्मण होने से तुम्हें यह कृत्य शोभा नहीं देता। तुमने शस्त्र से अनभिज्ञ मनुष्यों को ब्रह्मास्त्र से दग्ध क्रिया है । हे विप्र ! यह जो तुमने दुष्कृत्य किया है वह योग्य नहीं है । अब तुम युद्ध में आयुध को छोड दो। इस प्रकार उन महर्षियों के वचनों को सुनकर तथा भीमसेन के वाक्य (अश्वस्थामा हतः) का स्मरण करके द्रोणाचार्य युद्ध की ओर से उदास हो गये। तब उन्होंने भीम के वचन में सन्दिग्ध होकर अश्वत्थामा के मरने व न मरने बावत युधिष्ठिर से पूछा । कारण यह है कि उन्हें यह दृढ विश्वास था युधिष्ठिर कभी असत्य नहीं बोलेगा । इधर कृष्ण को जब यह ज्ञात हुआ कि द्रोणाचार्य पृथिवी को पाण्डवों से रहित कर देना चाहते हैं तब वे दुखित होकर धर्मराज (युधिष्ठिर) से बोले कि यदि द्रोणाचार्य क्रोधित होकर आधे दिन भी युद्ध करते हैं तो मैं सच कहता हूं कि तुम्हारी सब सेना नष्ट हो जावेगी। इसलिये आप हम लोगों की रक्षा करें । इस समय सत्य की अपेक्षा असत्य बोलना कहीं अधिक प्रशंसनीय होगा । जो जीवित के लिये असत्य बोलता है वह असत्यजनित पाप से लिप्त नहीं होता है । कृष्ण और युधिष्ठिर के इस उपर्युक्त वार्तालाप के समय भीमसेन युधिष्ठिर से बोला कि हे महाराज ! द्रोणाचार्य के वधके उपाय को सुनकर मैने मालव इन्द्रवर्मा के अश्वत्थामा नाम से प्रसिद्ध हाथी को मार डाला और तब द्रोणाचार्य से कह दिया कि हे ब्रह्मन्! अश्वत्थामा मर गया है,अब तुम युद्ध से विमुख हो जाओ। परंतु उन्होंने मेरे कहने पर विश्वास नहीं किया । अब आप कृष्ण के वचनों को मानकर विजय की इच्छा से द्रोणाचार्य से अश्वत्थामा के मर जाने बाबत कह दें । हे राजन् ! आपके वैसा कह देने से द्रोणाचार्य कभी भी युद्ध नहीं करेंगे। कारण कि आप तीनों लोकों में सत्यवक्ता के रूप में प्रसिद्ध हैं । इस प्रकार भीमसेन के कथन को सुनकर और कृष्ण की प्रेरणा पाकर युधिष्ठिर वैसा कहने को उद्यत हो गये। तब उन्होंने 'अश्वत्थामा हतः' इस वाक्यांश को जोर से कहकर पीछे अस्पष्ट स्वर से यह भी कह दिया कि 'उत कुञ्जरो हत:-अश्वत्थामा मरा है अथवा हाथी मरा है। जब तक युधिष्ठिर ने उक्त वाक्यका उच्चारण नहीं किया था तब तक उनका रथ पृथिवी से चार अंगुल ऊंचा था। परंतु जैसे ही उन्होंने उसका उच्चारण किया कि वैसे ही उनके उस रथ के घोडे पृथिवी का स्पर्श करने लगे। उधर युधिष्ठिर के मुख से उस वाक्य को सुनकर द्रोणाचार्य पुत्र के मरण से संतप्त होते हुए जीवन की ओर से निराश हो गये। उस समय वे ऋषियों के कथनानुसार अपने को महात्मा पाण्डवों का अपराधी समझने लगे। इस प्रकार वे पुत्रमरण के समाचार से उद्विग्न एवं विमनस्क होकर धृष्टद्युम्न को देखते हुए भी उससे युद्ध करने के लिये समर्थ नहीं हुए। यह कथानक संक्षेप में कुछ थोडे-से परिवर्तन के साथ श्री शुभचन्द्रविरचित पाण्डवपुराण (पर्व 20, श्लोक 218-233) तथा देवप्रभसूरिविरचित पाण्डवचरित्र (13, 498-514) में भी पाया जाता है । कृष्ण के कपटपूर्ण बटुवेष का उपाख्यान वामनपुराण (अ.३१) में इस प्रकार पाया जाता है-विरोचनका पुत्र एक बलि नाम का दैत्य था,जो अतिशय प्रतापी था। उसके अशना नाम की पत्नी से सौ पुत्र उत्पन्न हुए थे। एक समय वह यज्ञ कर रहा था। उस समय अकस्मात् पर्वतों के साथ समस्त पृथिवी क्षुभित हो उठी थी । पृथिवी के इस प्रकार से क्षुभित देखकर बलि ने शुक्राचार्य को नमस्कार कर उनसे इसका कारण पूछा । उत्तर में वे बोले कि भगवान् कृष्ण ने वामन के रूप में कश्यप के यहां अवतार लिया है । वे तुम्हारे यज्ञ में आ रहे हैं । उनकी पादप्रक्षेप से पृथिवी विचलित हो उठी है। यह उस जगद्धाता कृष्ण की माया है। शुक्राचार्य के इन वचनों को सुनकर बलि को बहुत हर्ष हुआ, उसने अपने को अतिशय पुण्यशाली समझा। उनका यह वार्तालाप चल ही रहा था कि उसी समय कृष्ण वामन के वेष में वहां आ पहुंचे । तब बलि ने अर्घ लेकर उनकी पूजा करते हुए कहा कि मेरे पास सुवर्ण, चांदी, हाथी, घोडे, स्त्रियां, अलंकार एवं गायें आदि सब कुछ हैं, इनमें से जो कुछ भी मांगो उसे मैं दूंगा। इसपर हंसकर कृष्ण ने वामन के रूप में कहा कि तुम मुझे तीन पाद मात्र पृथिवी दो। सुवर्ण आदि तो उनको देना जो उनके ग्रहण की इच्छा करते हो। इसे स्वीकार करते हुए बलि ने उनके हाथ पर जलधारा छोडी । उस जलधारा के गिरते ही कृष्ण ने वामनाकार को छोडकर अपने सर्व देवमय विशाल रूप को प्रकट कर दिया। इस प्रकार से कृष्ण ने तीन लोकों को जीतकर और प्रमुख असुरों का संहार कर उन तीनों लोकों को इन्द्र के लिये दे दिया। इसके साथ ही उन्होंने सुतल नामक पाताल बलि के लिये भी दिया। उस समय वे बलि से बोले कि तुमने जलधारा दी है और मैंने उसे हाथ से ग्रहण किया है, अतएव तुम्हारी आयु कल्पप्रमाण हो जावेगी, वैवस्वत मनु के पश्चात् सावर्णिक मनु के प्रादुर्भूत होने पर तुम इन्द्र होओगे, इस समय मैंने समस्त लोक इन्द्र को दे दिया है । जब तुम देवों और ब्राह्मणों से विरोध करोगे तब तुम वरुण के पाश से बंधे जाओगे। इस समय जो तुमने बहुत दानादि सत्कार्य किये हैं वे उस समय अपना फल देंगे। इस प्रकार कृष्ण ने मायापूर्ण व्यवहारसे बलि पर विजय पायी थी, अतएव वे अपयशरूप कालिमा से लिप्त हुए ॥२२०॥ |