+ माया से होनेवाली हानि -
प्रच्छन्नकर्म मम कोऽपि न वेति धीमान्
ध्वंसं गुणस्य महतोऽपि हि मेति मंस्थाः ।
कामं गिलन् धवलदीधितिधौतदाहं।
गूढोऽप्यबोधि न विधुं स विधुन्तुदः कैः ॥२२२॥
अन्वयार्थ : हे भव्य ! कोई भी बुद्धिमान् मेरे गुप्त पापकर्म को तथा मेरे महान् गुण के नाश को भी नहीं जानता है, ऐसा तू न समझ । ठीक है- अपनी धवल किरणों के द्वारा प्राणियों के संताप को दूर करनेवाले चन्द्र को अतिशय ग्रसित करनेवाला गुप्त भी वह राहु किनके द्वारा नहीं जाना गया है ? अर्थात् वह सभी के द्वारा देखा जाता है ॥२२२॥
Meaning : O worthy soul! Do not think that no wise man comes to know about your clandestine evil-deeds, and obliteration of your high qualities. Who does not know the invisible Rāhu who swallows wholly the moon that soothes the living beings by its dazzling white rays?

  भावार्थ 

भावार्थ :

विशेषार्थ- मायावी मनुष्य प्रायः यह समझता है कि मैं जो यह कपटपूर्ण आचरण कर रहा हूं न उसे ही कोई जानता देखता है और न उसके कारण होने वाली गुण की हानि को भी। परन्तु यह समझना उसकी भूल है । देखो, जो चन्द्र अपनी निर्मल शीतल किरणों से संसार के संताप को दूर करके उसे आल्हादित करता है उसे राहु कितनी भी गुप्त रीति से क्यों न ग्रसित करे, परन्तु वह लोगों की दृष्टि में आ ही जाता है- वह छिपा नहीं रहता है । अभिप्राय यह है कि मनुष्य जो कपटपूर्ण व्यवहार करता है वह तत्काल भले ही प्रगट न हो, किन्तु कालान्तर में वह प्रगट हो ही जाता है। अतएव ऐसा समझकर मायापूर्ण व्यवहार कभी भी न करना चाहिये ॥२२२॥